________________ पादः ] दोधकवृत्तिः . . 51 367 जइ मसु आवइ दुइ घरु, काई अहो-मुहु तुज्झ / ' . वयणु जु खण्डइ तउ सहिए, सो पिउ होइ न मझु // 44 // ' हे दूति ! स यदि गहं न 'आवइ' आगच्छति, तर्हि तवाधोमुखं किम् ? / हे सखि ! यस्तव वचन खण्डयति स मम प्रियो न भवति इत्यर्थः // 44 / / 367 काई न दूरे देक्खइ / / . 'काई' किं न दूरे पश्यति // 367 फोडिन्ति जे हिमडउं अप्पडउं, ताहं पराई कवण घण / रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा, बालहे जाया विसम थण / / 4 / / * व्याख्या (दो०.) पूर्ववत्। ..... 367 सुपुरिस कंगुहे अणुहरहि, भण कज्जें कवणेण। जि जिवं वहुतणु लहहिं, तिवं तिवं नवहिं सिरेण / / 46 // - सुपुरुषाः कंगो:-धान्यविशेषस्य' अनुहरन्ते-सदृशा भवन्ति, भण कथय केन कार्येण ? / उच्यते, यथा यथा / बृहत्त्वं लभन्ते, तथा तथा शिरसा नमन्तीत्यर्थः // 46 // 367 जइ ससणेही तो मुइअ, अह जीवइ निन्नेह / बिहिंवि पयारेहि गइअ धण, किं गज्जहि खल मेह // 47 // 2 : कस्याश्चिद् भर्ता देशान्तरं गतोऽस्ति स मेघं प्रत्याह, सा स्त्री यदि सस्नेहा भविष्यति तदा मृता भविष्यति, मम 1. जइ सो न एइ गेहं, ता दूइ अहोमुही तुमं कीस / - सो होही मज्झ पिओ, जो तुज्झ न खंडए धयणं / वज्जालग्ने 417 2. किं गतेन यदि सा न जीवति, प्राणिति प्रियतमा तथापि किम् / . . इति वीक्ष्य नव मेघमालिकां, न प्रयाति पथिकः स्वमन्दिरम् // . .................... भर्तृहरि विरचिते शृङ्गारशतके 67