________________ .. श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् 215 - मिग-मीगोऽखलचलि / 4 / 2 / 8 // अनयोर्यपि खल्-अच्-अल्वर्जेऽक्ङिति च विषये 'आत्' स्यात् / निमाय, निमाता; प्रमाय, प्रमाता / अखलचलीति किम् ? ईषनिमयः, दुष्प्रमयः, मयः, आमयः; निमयः; प्रमयः // 8 // लीङ्-लिनोर्वा / 4 / 2 / 9 // अनयोर्यपि खल्-अच्-अल्वर्जेऽक्छिति च विषये 'आद्वा' स्यात् / विलाय, विलीय; विलाता, विलेता / अखलचलीति किम् ? ईषद्विलयः, विलयः, विलयोऽस्ति // 9 // णौ क्री-जीङः / 4 / 2 / 10 // एषां णौ ‘आत्' स्यात् / क्रापयति, जापयति, अध्यापयति // 10 // सिध्यतेरज्ञाने / 4 / 2 / 11 // अज्ञानार्थस्य सिध्यतेहूं 'स्वरस्याऽऽत्' स्यात् / मन्त्रं साधयति / अज्ञान इति किम् ? तपस्तापसं सेधयति // 11 // चि-स्फुरोर्नवा / 4 / 2 / 12 // चिस्फुरोर्णी 'स्वरस्याऽऽद्वा' स्यात् / चापयति, चाययति; स्फारयति, स्फोरयति // 12 // वियः प्रजने / 4 / 2 / 13 // गर्भाऽऽधानार्थस्य वियो णौ ‘वा आत्' स्यात् / पुरो वातो गाः प्रवापयति, प्रवाययति // 13 // रुहः पः // 4 // 2 // 14 // रुहेर्णी 'प् वा' स्यात् / रोपयति रोहयति वा तरुम् // 14 // लियो नोऽन्तः स्नेहद्रवे / 4 / 2 / 15 //