________________ 181 - श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् लघुवृत्तौ तृतीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः // 33 // श्रीदुर्लभेशद्युमणेः पादास्तुष्टुविरे न कैः ? / लुलद्भिर्मेदिनीषालैर्वालिखिल्यैरिवाग्रतः // 11 // . (चतुर्थः पादः) गुपौ-धूप-विच्छि-पणि-पनेरायः / 3 / 4 / 1 // एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे 'आयः' स्यात् / गोपायति, धूपायति, विच्छायति, पणायति, पनायति // 1 // कमेर्णिङ् // 3 // 4 // 2 // कमेः स्वार्थे 'णिङ्' स्यात् / कामयते // 2 // ऋतेर्डीयः / 3 / 4 / 3 // ऋतेः स्वार्थे 'डीयः' स्यात् / ऋतीयते // 3 // ___अशवि ते वा // 3 // 4 // 4 // 'गुपादिभ्योऽशविषये ते- आयादयो वा' स्युः / गोपायिता, गोप्ता; कामयिता, कमिता; ऋतीयिता, अर्तिता // 4 // गुप्-तिजो गर्हा-क्षान्तौ सन् 13 // 4 // 5 // गुपो गर्दायां तिजः क्षान्तौ वर्तमानात् स्वार्थे ‘सन्' स्यात् / जुगुप्सते, तितिक्षते / गर्हाक्षान्ताविति किम् ? गोपनम्, तेजनम् // 5 // .. कितः संशय-प्रतीकारे / 3 / 46 // कितः संशय-प्रतीकारार्थात् स्वार्थे ‘सन्' स्यात् / विचिकित्सति मे मनः, व्याधि चिकित्सति / संशयप्रतीकारार्थ इति किम् ? केतयति // 6 //