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________________ 82 अभिज्ञान-शाकुन्तलम् [प्रथमो शकुन्तला-( सरोषमिव-) अणसूए ! अहं गमिस्सं / [( सरोषमिव ) अनसूये ! अहं गमिष्यामि ] | .. अनसूया-किंणिमित्तं ? [ किंनिमित्तम् ? ] / शकुन्तला-इमं असम्बद्धष्पलाविणिं प्रियंवदं अजाए गोदमीए 'गदुअ णिवेदइस्सं / (-इत्युत्तिष्ठति ) / [इमामसम्बद्धप्रलापिनीं प्रियंवदामा-यै गौतम्यै गत्वा निवेदयिष्यामि ( इत्युत्तिष्ठति )] / . अनसूया - सहि ! ण , जुत्तं अस्समवासिणो जणस्य अकिदसक्कार अदिधिविसेसं उज्झिअ सच्छन्ददो गमणं / क्षम-स्पर्शक्षम = ग्रहणाह, रत्नम् / नेयं ब्राह्मणबालिका, किन्तु-क्षत्रादप्सरःसम्भवा मदुपसङ्ग्रहणा हैं वेति भावः / [ अत्र उत्तरार्द्ध पूर्वार्द्धवाक्याथों हेतुरिति काव्यलिङ्गं / वृत्त्यनुप्रासश्च / समाधानञ्च मुखसन्ध्यङ्गं-बीजस्याऽऽगमनं यच्च तत्समाधानमुच्यते' इति दर्पणात् ] // 30 // सरोषमिव = सकृतकक्रोधम् / असंबद्धं पलपितुं शील यस्यास्ताम् = असङ्गतार्थभाषणप्रवणाम् / आर्याय = पूज्यायै / निवेदयिष्यामि = कथयिष्यामि / न जिसको तूं अग्नि ( ब्राह्मण की कन्या होने के कारण अग्नि की तरह ही स्पर्शकरने के अयोग्य ) समझता था, वह तो स्पर्श के योग्य शीतल रत्न (मणि, हीरा, पन्ना आदि) निकला / अर्थात्-यह ब्राह्मण कन्या होने के कारण तेरे स्पर्श करने के अयोग्य, दूर से ही देखने की चीज नहीं है, किन्तु अप्सरा को कन्या होने के कारण मेरे विवाह करने के योग्य ही है ! // 30 // शकुन्तला-( कुछ कुपित सी होकर ) सखि अनसूये ! मैं जाऊँगी / अनसूया-किसलिए? / शकुन्तला --असम्बद्धप्रलापिनी ( व्यर्थ की बकवाद करनेवाली ) इस प्रियंवदा की शिकायत मैं आर्या गौतमी से जाकर करूँगो / [ जाने के लिए उठतो है ] / अनसूया-हे सखि ! आश्रमवासी जनको ( तुमको) यह कदापि उचित 1 कचिन्न /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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