________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् अपि चलोलां दृष्टिमितस्ततो वितनुते सभ्रलताविभ्रमा माभुग्नेन विवर्तिना बलिमता मध्येन कम्रस्तनी / हस्ताग्रं विधुनोति पल्लवनिभं शीत्कारभिन्नाऽधरा, जातेयं भ्रमराऽभिलङ्घनमिया वाद्येविना नर्तकी // 26 // लोलामिति / इयं = शकुन्तला, ध्रुवौ लते इव,-भूलते, तयोविभ्रमेण = विक्षेपणविशेषेण सह वर्तमानां, लोलां = तरलां, दृष्टिं = चक्षुः, इतस्ततः= वितनुते = क्षिपति / किञ्च आभुनेन = भयादीषत्कुटिलेन, वलिमता = त्रिवलिशालिना, विवत्तिना = भ्राम्यता, मध्येन = मध्यभागेन, उपलक्षिता, अत एव कम्रौ = मनोहरौ स्तनौ यस्याः सा कम्रस्तनी / 'विवर्तिता' इति पाठे चमणाकलितेत्यर्थः / पल्लवस्य निभं-पल्लवनिभं = किसलया कारं, हस्ताग्रं = कराग्रभागं, विधुनोति = कम्पयति / शीत्कारेण भिन्नो-युतोऽधरो यस्याः सा शीत्कारभिन्नाधरा = शीत्कारकारिणी सती, भ्रमरेण यदभिलङ्घनं = समाक्रमणं, तस्माद्भीस्तया, वाद्यैः = मृदङ्गादिभिर्विनैव, नर्तकी = नटीव, जाता = निष्पन्ना। नर्तक्यपि और भी - यह बाला भ्रूलता (भौंह) के विभ्रम (विलासपूर्ण विक्षेप, उतार-चढ़ाव ) से युक्त अपनी चञ्चल दृष्टि को इधर-उधर फेंक रही है। [ नर्तकी भी-नाचते समय भ्रूभङ्ग सहित अपनी चञ्चल दृष्टि को इधर उधर घुमाती है ] / तथा भ्रमर के भय से अपनी त्रिवलीयुक्त टेढ़ी कमर को इधर-उधर घुमाने से इस बाला के कुचकलस भी बड़े ही कमनीय मालूम होते हैं। [नर्तकी भी-नाचते समय अपनी कमर को इधर उधर टेढ़ी करती है, घुमाती है। और कमर के इधर उधर घुमाने से व टेढ़े करने से उसके स्तन भी उभड़ आते हैं, जिससे वह और भी मनोहर मालूम होती है / और पल्लव के समान आरक्त और कोमल अपने हस्ताग्र को यह इधर उधर झटकार रही है, और सीत्कारयुक्त अधर पल्लव से शोभित है [नर्तकी भी-नाचते समय अपने हाथों को इधर उधर घुमाती है। 1 इस आरभ्य 'अतिथिसमाचारमेवाऽवलम्बिष्ये' इत्येतावान् ग्रन्थ इह कचिन्न दृश्यते, अग्रे च दृश्यतेऽयं पाठः / 2 'विवर्तिता' पा० /