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________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम् [प्रथमो अपि चकठिनमपि मृगाक्ष्या वल्कलं कान्तरूपं, _न मनसि रुचिभङ्गं स्वल्पमप्यादधाति / विकचसरसिजायाः स्तोकनिमुक्तकण्ठं, निजमिव कमलिन्याः कर्कशं वृन्तजालम् // 21 // भवति 1, अपितु सर्वमपि वस्तु रम्याणां श्रियमेव पुष्णाति, कण्ठे विषमिव नीलकण्ठस्य, अतः-कलङ्कन-चन्द्रस्येव, शैवालेन कमलस्येव-वाऽस्या अनेन वल्कलेन शोभैवेत्याशयः / अर्थान्तरन्यासः // 20 // कठिनमपीति / मृगस्येवाक्षिणी. यस्यास्तस्याः-मृगाक्ष्याः = चपलायतलो. चनायाः, कठिनमपि = कठोरमपि, तद्वपुषोऽनहमपि, अतिशयेन कान्तं-कान्तरूपं = कमनीयं, कान्ताङ्गसंस्पर्शवत्कान्तम्, वल्कलं, विकचानि सरसिजानि यस्याः सातस्याः = उत्फुल्लकमलायाः, स्तोकम्-अल्पं, निर्मुक्तः-त्यक्तः, कण्ठो येन तत् स्तोकनिर्मुक्तकण्ठं = कण्ठादधोऽधःप्रसृतं, 'कण्ठो गले सन्निधाने ध्वनौ मदनपादपे' इति मेदिनी। कमलिन्याः = पद्मलतायाः, निज = स्वकीयं, कर्कशं = कठोरं, वृन्तजालमिव = प्रसवबन्धनपटलमिव, मनसि = स्वान्ते, स्वल्पमपि = किञ्चिदपि, रुचेः = कान्तेः, भङ्ग = विच्छेदं, नादधाति = न कुरुते / / [अत्रहि आगलमाप्रपदं च बद्धस्य वल्कलस्य-कठिनेन कमलिनीवृन्तजालेन साम्यादुपमालङ्कारः / 'प्रसिद्धिलॊकसिद्धार्थैरुत्कृष्टैरर्थसाधन'मित्युक्तं प्रसिद्धिर्नाटकलक्षणं च सूचितं श्लोकद्वयेन ] // 21 // के लिए कौन वस्तु शोभादायक नहीं होती है ? / अर्थात् सुन्दर आकृतिवालों के शरीर पर साधारण सी वस्तु भी अलङ्कार के तुल्य ही मालूम होती है // 20 // और भी-- इस मृगाक्षी के शरीर पर कण्ठ से नीचे तक बँधा हुआ यह वल्कल-वस्त्र कठोर होते हुए भी, उसी प्रकार मन में थोड़ी सी भी अरुचि पैदा नहीं करता है, जैसे विकसित कमल रूपी पुष्पों से शोभित कमलिनी (कमल की लता) का, फूलों से लेकर नीचे की ओर जड़ तक लगा हुआ, अपना कठोर नाल ( काटों से भरी हुई कमल की डण्डी ) बुरा नहीं मालूम होता है // 21 // 1 कचिन्न /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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