________________ 512 wwwwwwwww अभिज्ञानशाकुन्तलम्- सप्तमो[ आर्यपुत्र ! तदेतदङ्गुलीयकम् ?] / राजा-अथ किम् / अस्याऽद्भुतोपलम्भान्मया स्मृतिरुपलब्धा / . शकुन्तला–विसमं किदं क्खु इमिणा जं तदा अजउत्तस्स पञ्चामणकाले दुल्लहं आसि। [विषमं कृतं खल्वनेन, यत्तदाऽऽर्यपुत्रस्य प्रत्यायनकाले दुर्लभमासीत् / राजा-तेन हि ऋतुसमागमचिह्न प्रतिपद्यतां लता कुसुमम् / शकुन्तला—ण से विस्ससेमि, अजउत्तो ज्जेव णं धारेद / [ नाऽस्य विश्वसिमि / आर्यपुत्र एवैनद्धारयतु] / अद्भुतउपलम्भोऽस्य, तस्मात् = अतर्कितोपलम्भात् / प्रत्यायनकाले = विश्वासजननसमये। ऋत्विति / ऋतुसमागमचिह्नं कुसुमं यथा लता धत्ते, तथा मत्समागमचिह्न ममेदमङ्गुलीयकमेतहिं भवती दधात्विति वत्तेलितोऽर्थः। को देखकर, पहिचान कर-] हे आर्यपुत्र ! क्या यह वही अंगूठी है ? / (जो पहिले मेरे हाथ से जल में गिर गई थी)। राजा-हाँ, यह वही अंगूठी है। और अकस्मात् आश्चर्यजनक रूप से ही इसके मिलने पर मुझे तुमारा स्मरण हुआ | शकुन्तला-इस अंगठी ने उस समय बहुत ही कठिन ( अनुचित ) काम किया था, जो आर्यपुत्र को ( आप को ) विश्वास दिलाने के समय मुझे दुर्लभ हो गई थी। राजा-तो ऋतु के समागम के चिह्न स्वरूप लता जैसे पुष्पों को धारण करती है, उसी प्रकार मेरे साथ समागम के फल स्वरूप तुम भी इस अंगूठी को अब अपने हाथ में धारण करो / शकुन्तला-मैं इस अंगठी का विश्वास नहीं करती हूँ.। इसे तो अब आप ही धारण करिए।