________________ 482 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमोराजा-अहो! स्वर्गादिदमधिकं निवृतिस्थानम् / अमृतहदमिवाऽवगाढोऽस्मि ! / मातलि:--(रथं स्थापयित्वा-) अवतरत्वायुष्मान् / राजा-(अक्तीर्य-) 'भवान् किमिदानीम्-' ? / मातलि:--समययन्त्रित एवाऽयमास्ते रथः / यद्वयमप्यवतरामः / ( तथा कृत्वा-) इत इत आयुष्मन् ! दृश्यन्तामत्रभवतामृषीणां तपोवनभूमयः। प्रजापते:-कश्यपस्य / आश्रमं = तपोवनं / निर्वृतिस्थानं = सुखप्रदम् / अमृतदमिव = पीयूषसरोबर विशेषमिव / अवगाढः = प्रविष्टः / भवान् कथमिदानी ? भविष्यतीति शेषः / सम्प्रति किं करिष्यति भवान् ? / 'किमिदानी मिति पाठे-'अव-। तरिष्यतीति शेषः / प्रश्नश्चाऽयम् / संयन्त्रितः = सम्यक संस्थापितः / स्वयनियन्त्रित इति वाऽर्थः। 'समययन्त्रितः' इति पाटे-'हे रथ! अस्मदागमनपर्यन्तं त्वं तिष्ठेति समयबन्धपूर्वकं कथनम त्रेण समवस्थापितः / राजा-ओह ! यह स्थान तो स्वर्ग से भी अधिक शान्ति और आनन्द का देने वाला है ! / मैं तो जैसे अमृतके हृद ( सरोवर ) में ही प्रविष्ट हो गया हूँ। अर्थात्-अमृत के हृद में गोता लगाने का सा आनन्द मुझे यहाँ आ रहा है। मातलि-( रथ को खड़ा करके-) हे आयुष्मन् ! अब आप उतरिए। राजा-(रथ से उतर कर ) और अब आप ? / ( रथ की रक्षा के लिए आप यहीं रहेंगे, या आप भी उतर कर मेरे साथ ही आश्रम में चलेंगे?)। मातलि-यह देवरथ सङ्केत मात्र से ही, कहने मात्र से ही, अपने आप ही यथावत् खड़ा रहता है। इसकी रक्षा करने के लिए मुझे इसके पास ठहरने की आवश्यकता नहीं है / इसलिए मैं भी इससे उतर कर आश्रम में चलता हूँ। ( उतरकर-) हे आयुष्मन् ! आप इधर से पधारिए, इधर से / और यहाँ पूज्य ऋषियों की तपोवनभूमिका दर्शन करिए। 1 'भवान् कथमिदानी पा० / 2 'संयन्त्रितः' /