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________________ 458 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [षष्ठोयो हनिष्यति वध्यं त्वां, रक्ष्यं रक्षिष्यति द्विजम् / हंसो हि क्षीरमादत्ते, तन्मिश्रा वर्जयत्यपः // 34 // (-इति अस्त्रं सन्धत्ते ) . ( ततः प्रविशति मातलिविदूषकश्च ) / विश्वासः = आस्था / पाठान्तरे-विश्लेषः = वियोगः / मा भूत् = मा भवतु नाम / माधव्यवपुःसम्बन्धे सत्यपि न मे बाणमोक्षे बाधा / ननु कदाचित्तव बाणो माधव्यमेव हन्यादित्यत आह-य इति / तं = ताहशम् / इषु = बाणं / सन्दधे-यः = वाणः / वध्यं = वधाई-त्वां / हनिष्यति = मारयिष्यति / रक्ष्यं = रक्षणीयतयाऽभिमतं / द्विजं = माधव्यं च / रक्षिष्यति = पालयिष्यति / हि-यतः / हंसः = क्षीरं = दुग्धं स्वभोज्यम् / आदत्ते = गृहाति / तेन मिश्राः-तन्मिश्राः = पयसा मिलिताः। अपः = जलम् / वर्जयति = त्यजति / [दृष्टान्तालङ्कारः / 'भोस्तिरस्करिणी गर्विते त्यादिनैदन्तेन व्यवसायो दर्शितः। [अन्न 'अब्रह्मण्यमित्यत आरभ्य विद्रवो नाम गर्भसन्ध्यङ्गं दर्शितं 'वघोद्योगो विद्रवः स्याद्वधसन्ताडनादिभिः' - इति तल्लक्षणात् ] // 34 // मातलिः-इन्द्रसारथिः। 'सूतो मातलि' रित्यमरः देखेगा / जरा ठहर तो। और मेरे मित्र के शरीर के साथ सम्पर्क रखने से, (सटे रहने से ) उसके मरने के डर से, मैं तुमारे ऊपर अस्त्र नहीं चला सकूँगा, ऐसा भी मत समझना / क्योंकि मैं ऐसे बाण को धनुष पर चढ़ा रहा हूं, जो कि मारने योग्य तुझ राक्षस को तो मार गिराएगा, और रक्षा के योग्य मेरे मित्र ब्राह्मण माधव्य की रक्षा भी उसी तरह करेगा, जैसे हंस दूध में मिले जल को छोड़कर उसमें से केवल दूध को हो अलग करके पी लेता है। अर्थात् मेरा अभिमन्त्रित बाण मेरे मित्र को बचाकर केवल तुझको हो मारेगा // 34 // ( अस्त्र का-अभिमन्त्रित बाण का-सन्धान करता है ) / . [ इन्द्र के सारथि मातलि का और विदूषक का प्रवेश ] / 1 'श' पा०।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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