________________ www www 438 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठोराजा-वेत्रवति ! न खल्वन्तरे त्वया दृष्ट्वा देवी ? ! प्रतीहारी–देव ! दिट्ठा / पत्तहत्थं मं पेक्खिअ पडिणिउत्ता। . ' [ देव ! दृष्टा, पत्रहस्तां मां प्रेक्ष्य प्रतिनिवृत्ता]। राज - कारर इा देवी, कार्योपरोधं मे परिहरति / प्रतीहारी-देव ! अमञ्चो विण्णवेदि-'अज्ज रजकजस्स बहुलदाए एक्कं ज्जेव मए पोरकज्जं पञ्चवेक्खिदं, तं देवो पत्तरोविदं पच्चक्खीकरेदु' त्ति / [देव ! अमात्यो विज्ञापयति–'अद्य राज्यकार्य्यस्य बहुलतया, एकमेव मया पौरकायं प्रत्यवेक्षितं, तद्देवः पत्रारोपितं प्रत्यक्षीकरोतु' -इति / स्थिरस्नेहः = दृढानुरागः / वसुमत्यादिप्रणयमर्यादापालनादिति भावः / अन्तरे = मार्गमध्ये / खलुरत्र प्रश्ने / प्रतिनिवृत्ता = स्वभवनमेव गता / अन्तःपुरभवनमेव प्रविष्टा / कार्ये जानातीति-कार्यज्ञा। कार्यज्ञा = अवसरज्ञा / राजकार्यगौरवाऽभिज्ञा वा / कार्यस्योपरोधं = राजकार्यव्याघातं / राज्यकार्यविघ्नं / परिहरति = निवारयति / न कुरुते / राज्यकार्यस्य = सन्धिविग्रहादिकार्यस्य / पौरकार्य = पुर राजा-हे वेत्रवति ! तूंने रास्ते में कहीं महारानी को भी देखा है ? / प्रतीहारी-हाँ महाराज ! महारानीजी मझे रास्ते में आती हुई मिली थीं, परन्तु मुझे सरकारी कागज पत्र व पर्वाना लाते हुए देखकर वे रास्ते से ही वापिस चली गई। ( महल को ही वापिस लौट गई ) / राजा-ठीक है, महारानी राजकार्य की गुरुता को समझती हैं, और वे मेरे राज-काज में विघ्न नहीं करती हैं यह उनकी योग्यता उचित ही है। __ प्रतीहारी–महाराज ! प्रधानमन्त्री पिशुनस्वामी निवेदन करते हैं, किआज राज्य सम्बन्धी और बहुत से आवश्यक कार्यों के उपस्थित हो जाने से मैं केवल नगर वासियों के एक ही कार्य ( मक हमें ) को देख सका हूँ। और उस कार्य को मैं इस पत्र पर लिखकर भेज रहा हूँ, महाराज इसको देख लें।