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________________ 436 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [षष्ठोराजा-वयस्य ! उपस्थिता देवी, बहुमानगर्विता च / तद्भवानिमां प्रतिकृतिं रक्षतु। विदूषकः-अत्ताणम्पि' किं ति ण भणसि ? / ( चित्रफलकमादायीत्याम च-) जइ भवं अन्तेउर-कूडवागुरादो मुञ्चिस्सदि तदो मेहच्छण्णप्पासादे सदाबिस्सदि। एदंच. तहिं गोवाएमि जहिं पारावदं उज्झिम अण्णो कोवि ण पेक्खिस्सदि / (-इति द्रुतपदं निष्क्रान्तः ) / ['आत्मानमपि-किमिति न भणसि ? / (चित्रफलकमादाय उत्थाय च-) यदि भवानन्तःपुरकूटवागुरातो मोक्ष्यते, तदा मेघेच्छन्नप्रासादे शब्दायिष्यते / इदश्च तत्र गोपायामि यत्र पारावतमुज्झित्वाऽन्यः कोऽपि न प्रेक्षिष्यते / चेलाञ्चलं / निह्नतः = आच्छादितो लताशाखादिभिः। बहुना मानेन गर्विता = आंतमानदर्पिता / दृष्ट्वैवेमा प्रतिमा 'मत्सपत्नीमालिखती'ति कृत्वा मयि मानं, कोपं, कलह वा विदध्यादित्याशयः। प्रतिकृति = शकुन्तलाचित्रं / रक्षतु- गोपायतु / आत्मानमपीति / 'आत्मानमपि गोपायेति कुतो न कथ्यते 1 / 'चित्रं गोपायेत्येव किमुच्यते'-इति शेषः। अतिरोषणायास्तस्याः पुरतः पलायनमेव युक्त.मात्मरक्षणार्थमस्माकमित्याशयः / अन्तःपुरमेव-कूटवागुरा, तस्याः = अन्तःपुररूपान्मायाबन्धनात् / कलहात् / वसुमत्यादिप्रपञ्चादिति यावत् / 'शब्दापयेति राजा-हे मित्र ! महारानी उपस्थित है ( यहाँ आ ही रही है), और वह बहुत मान करनेवाली है, और गर्विता भी है। यदि इस शकुन्तला के चित्र को वह देख लेगी, तो मान से कुपित हो जाएगी, और हमारे को बुरा-भला भी कहेगी / अतः इस चित्र की तुम रक्षा करो / इसे कहीं छिपा दो। विदूषक-आप इस चित्र की रक्षा की ही बात क्यों कह रहे हैं, अपनी ( आपकी तथा मेरी विदूषक की ) रक्षा की भी बात कहिए / अर्थात्-वे तो आप के प्रति और मेरे प्रति भी बहुत ही नाराज होंगो। (चित्रपट को लेकर, उठकर-) यदि आप इस अन्तःपुर ( रानियों ) की कूट वागुरा ( गहरे माया जाल, कलह, झञ्झट ) से किसी प्रकार बच सकें, तब मुझे मेघछन्न प्रासाद ( गगन चुम्बी, बादलों से भी ऊँचे महल, बुर्ज ) में से आवाज देकर बुला 1 'मेघप्रतिच्छन्दके' पा०। 2 'त्वं शब्दापय'- 10 /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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