________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटोका-विराजितम् 431 राजा-निवार्यमाणोऽपि कथं स्थित एव ! सानुमती--अहो ! धीरम्पि जणं रसो विआरेदि ! [ अहो ! धीरमपि जनं रसो विकारयति ] / विदूषकः-(प्रकाशम्-) भो ! चित्तं क्खु एदं / [(प्रकाशम्-) भोः ! चित्रं खल्वेतत् ] / राजा-कथं चित्रम् ! सानमती-अहम्पि दाणिं अवगदत्था, कि उण जधाचिन्तिताणुसारी एसो!। . [अहमपि इदानीमवगताऽर्था, किं पुनर्यथाचिन्तितानुसारी एषः !] / स्थित एव = अवस्थित एव / न त्वयं मत्प्रियानुवर्तनव्यापारान्निवर्त्तते इत्याशयः / रसः = अनुरागाऽऽवेशः / विप्रलम्भो वा रसः / विकारयति = विक्लवयति / एतत् = भवद्धस्तस्थं / चित्रं = प्रतिमा / न वस्तुतः शकुन्तला / [भ्रान्ति म सन्ध्यङ्गम्]। ... सानुमत्या अपि राजवचनात्सत्यमियं शकुन्तलेति भ्रमस्तन्मयतया चित्रे जातः, स च विदूषकवचसा निरस्त इति स्थितिः। तदाह-अहमपीति / इदानीं = विदूषकवचनादवगतोऽर्थों यया सा= निश्चितार्था / यथाचिन्तितानुसारी = सङ्क___ राजा-हैं ! मना करने पर भी यह तो अभी वहीं स्थित है, और वहाँ से हटता ही नहीं है। . सानुमती-अहो! धीर गम्भीर पुरुष को भी प्रेम एवं अनुराग ( या अपनी प्रिया का विरह ) पागल कर देता है। तभी तो यह राजा पागलों की तरह बातें कर रहा है। विदूषक-(प्रकट में ) हे मित्र ! यह शकुन्तला नहीं है, यह तो उसका चित्र है। इसमें सच्चा भ्रमर कहां से आया 1 / राजा हैं ! क्या यह चित्र है ? / .. ' सानुमती-मैं भी विदूषक के कहने से ही अभी समझ सकी हूँ, कियह सच्ची शकुन्तला नहीं है, किन्तु चित्र है / तो फिर अपनी भावना (वासना) 1 'स्मरो विकारयति' / 2 'किं पुर्नयथालिखितानुसार्येषः' पा० /