________________ अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठोविदषक:-भो ! एव्वं तिक्खदण्डस्स दे कधं ण भइस्सदि ? / ( विहस्यात्मगतम्-) एसो दाव उम्मत्तो, अहम्पि एदस्स सङ्गेण ईदिसो ज्जेव संवुत्तो / [भोः ! एवं तीक्ष्णदण्डस्य ते कथं न भेष्यति ! / ( विहस्यात्मगतम्-) एष तावदुन्मत्तः / अहमप्येतस्य सङ्गेन ईदृश एव संवृत्तः !] तिष्ठति, तं = कमलोदरकुहरकारागारनिबद्धं, त्वां कारयामि = करिष्यामि / एतेन कमलसङ्कोचकस्य सूर्यस्य निजाऽऽज्ञाकारित्वं ध्वन्यते / अन्योऽपि जनो राजाऽज्ञामुल्लङ्घयन् कारागारे बध्यते / [ अतिशयोक्ति-समासोत्त्यु-पमा-रूपका-नुप्रासाः / 'वसन्ततिलका वृत्तम्' ] // 23 // एषः = भ्रमरः / तीक्ष्णदण्डस्य = उपदण्डस्य / ते = तव / त्वत्तः / पञ्चम्यर्थे षष्ठी। कथं न भेष्यति = कथं न भीतो भविष्यति / अवश्यमेव भीतो भविष्यति / एषः = राजा / उन्मत्तः = विक्षिप्तः / - यदयं चित्रस्थं भ्रमरमपि दण्डयितुं व्यवस्यतीति भावः / ईदृशः = उन्मत्त इव / एतच्चित्तानुवनस्याऽऽवश्यकत्वात् , संसर्गजत्वाद्दोषगुणानामिति वा / निवार्यमाणः = निषिध्यमानः / मेरी प्रिया के कोमल पल्लवों के समान जिस अधरोष्ठ को मैंने सुरतोत्सव के समय भी बहुत धीरे 2 पान किया है, उसी बिम्बाधरको तूं यदि छूएगा, उसे पीएगा, उसका रसास्वाद लेगा, तो मैं तुझको कमलके भीतर ( कारागार में ) बन्द करा दूंगा। [ अन्य पुरुष भी परस्त्री के साथ यदि ऐसा अनुचित आचरण करता है, तो-उसे राजाज्ञा से कारागार में ही बन्द किया जाता है। उसी प्रकार भ्रमर को भी कमल के भीतर कारागार में बन्द करने की यह दण्डाज्ञा राजा ने सुनाई है ] // 23 // विदूषक- हे मित्र ! तुम यदि इस भ्रमर को ऐसा कडा दण्ड दोगे, तो तुमसे यह अवश्य भय खाएगा 1 / अर्थात्-कमल के भीतर बन्द करना तो भ्रमर के लिए बहुत हल्का ही दण्ड हुआ, इससे भला यह क्यों डरेगा? / भ्रमर तो कमल के भीतर स्वयं ही रात्रिको बन्द होता है / यह तो इसके लिए दण्ड नहीं, किन्तु अनुग्रह ही हुआ। अत: यह तुमसे क्यों डरेगा ? / याने-यह दण्ड तो तुमने इसे बहुत ही हल्का दिया है। / (हंसकर मन ही मन-) यह राजा तो पागल हो ही रहा है, इसके संग से मैं भी पागल हो गया हूं / भला चित्र में सच्चा भ्रमर कहां है ? / अतः यह सब तो पागलपन की ही बातें हो रही हैं।