________________ 428 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठोएषा कुसुमनिषण्णा, तृषिताऽपि सती भवन्तमनुरक्ता। प्रतिपालयति मधुकरी, न खलु मधु त्वां विना पिबति // 22 // सानुमती-अदिअत्थं क्खु वारिदो ! / [अत्यर्थं खलु वारितः / / विदषकः-भो ! पडिसिद्धवामा क्खु एषा जादी। वसि = किमिति त्वं स्वीकुरुषे / नाऽत्र तव कमलमधु सुलभमित्याशयः / सेवनोचितं स्थानं निर्दिशति-एषेति / एषा = चित्रलिखिता पुरोवर्तिनी। कुसुमे निषण्णा = कुसुमोपरि स्थिता। अनुरक्ता = त्वय्यनुरागवती। मधुकरी = भ्रमरी / प्रतिपालयति = त्वां प्रतीक्षते। तृषिताऽपि सतीत्वां विना-मधु = पुष्परसं / न खलु = नैव-पिबति / अनेन स्नेहातिशयो व्यज्यते / तत्तामेव प्रौढां कामुकीं भ्रमरीमेवानुसर त्वम् / मा खलु मत्प्रियां बालां मुग्धांमजातकामां क्लेशयेत्याशयो बोध्यः / [ अनुप्रास: / समासोक्तिः ] // 22 // ___ अत्यर्थ = नितान्तम् / सुन्दरतरया, समुचितया च रीत्या। 'अद्याऽभिजातं खल्वेष वारितः' इति पाठे-अभिजातं = न्यायानुमोदितेन पथा। समुचितं यथा स्यात्तथा निषिद्धः / 'अभिजातः स्मृतो न्याय्ये' इति विश्वः / प्रियाह्वानसूचनेन इतो ___ यह फूलों पर बैठी हुई तुम्हारी प्रिया भ्रमरी, मकरन्द रस की प्यासी होती हुई भी, तुमारे में अनुरक्त होने के कारण, तुमारे बिना पुष्प रस का पान नहीं कर रही है, किन्तु तुमारी बाट देख रही है। अतः तुम तो उसके पास जाओ, और उसके साथ ही पुष्पों के मकरन्द रस का पान करो / और इस शकुन्तला के मुख कमल का पीछा छोड़ो // 22 // सानुमती-वाह ! वाह !! क्या ही सुन्दर और उचित ढंग से राजा ने इस भ्रमर का निवारण (निषेध) किया है। विदूषक-हे मित्र ! यह जाति (भ्रमर की जाति ) तो रोकने पर विशेषतः