________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 407 mmmmmmmmmmm राजा--( अङ्गुलीयकं विलोक्य- ) अये ! इदं तावदसुलभस्थानभ्रंशि शोचनीयम। * तच सुचरितमङ्गुलीय ! नूनं प्रतनु कृशेने विभाव्यते फलेन / अरुणनखमनोहगसु तस्या श्युतमसि लब्धपदं यदङ्गुलीषु // 12 // भवति, तथा शकुन्तलासमागमोऽपि तव सहसैव भविष्यताति भावः / [ प्ररोचना सन्ध्यङ्गम् / असुलभस्थानभ्रंशि = दुर्लभस्थानाद्भष्टं / शकुन्तलाहस्ताद्गलितमिति यावत् / तवेति / यत्-अरुणैः-नखैमनोहरासु = आरक्तनखमनोज्ञासु / तस्या अङ्गुलीषु-लव्धपदं = प्राप्तावस्थानं-सदवि त्वं / च्युतमसि = ततः पतितमसि / तत्-तत्मात् , हे उजुलायक ! तव मुचन्तिं = पुण्यं / प्रतनु = अत्यल्पम् / इति = इत्थं / शेन = अल्पेन / फलेन = अङ्गुलीवियोगात्मना / नूनं =ध्रव / विभाव्यते - नियत / 'प्रतनु ममेवेति घाटस्तु शोमनः। तत्र-यथा मम सुकृतं स्वल्पं, तथैव तवेत्यर्थः / राघवभट्टसंमतश्चाऽयं पाठः / शकुन्तलाहस्ताद्यत्पतितमसि, तन्नूनमङ्गुलीयक ! अहमिव त्वमाप हतभाग्यमसीति भाव : / [ अनुमानं / काव्यलिङ्गं / समासोक्तिः / 'पुष्पिताग्रा' ] // 12 // राजा--( अंगूठी को देखकर ) अहो ! यह अंगूठी भी उस दुर्लभ स्थान / शकुन्तला को कोमल. सुन्दर अंगुलियों ) से गिरकर शोचनीय हो गई है। अर्थात्-इसका भी दुर्भाग्य, ही समझना चाहिए-जो शकुन्तला के हाथ की अंगुली यह से च्युत हो गई। हे अंगुलीयक ! (हे अंगठी ! ) तेरा पुण्य ही कम है, यह बात तो इस फल ( उसकी अंगुली से गिरने ) से ही हमारी समझ में आ रही है, जो तूं उस शकुन्तला की लाल 2 नखों से मनोहर, उन सुन्दर 2 अंगुलियों में स्थान पाकर भी. फिर वहाँ से गिर पड़ी!। [जिसका पुण्य कम होता है, वह स्वर्ग आदि ऊँचे पद को पाकर भी, वहाँ से फिर गिर जाता है / जैसे कहा है-'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति' / इसी प्रकार शकुन्तला की अंगुलियों में स्थान पाकर भी हूँ वहाँ से जो गिर पड़ी, इससे सिद्ध होता है, कि-तेरा पुण्य ही क्षीण हो गया है, अतएव तूं वहाँ से गिर पड़ी है // 12 // ] 1 'प्रतनु ममेव' पा० / 2 ‘सदङ्गुलीषु /