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________________ 402. अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठोराजा-( क्षणं ध्यात्वा-) सखे ! परित्रायस्व माम् / विदषकः-भो वअस्स ! किं एवं तुह उववण्णं ? / ण कदावि सप्पुरिसा सोअचित्ता होन्ति / णं पवादेवि णिकम्पा जेव गिरिओ। [भो वयस्य ! किमेतत्तवोपपन्नम् ? / न कदापि सत्पुरुषाः शोकचित्ता भवन्ति / ननु प्रवातेऽपि निष्कम्पा एव गिरयः ] / राजा--वयस्य ! निराकरणविक्लवायाः प्रियायास्तामवस्थामनुस्मृत्य बलवदशरणोऽस्मि / सा हि - इतः प्रत्यादिष्टा, स्वजनमनुगन्तुं व्यवसिता, स्थिती 'तिष्ठे'त्युच्चैर्घदति गुरुशिष्ये गुरुयमे / क्षणं ध्यात्वा = शकुन्तलायाः शोचनायां तां दशा क्षणं विचिन्य ! परित्रायस्व = रक्ष। एतत् = शोकाकुल वं। किमुपपन्नम् = किमुचितम् ? / नैवे. त्यर्थः / शोकचित्ताः = शोकातुरमनसः / 'शोकवक्तव्याः' इति पाठे-शोके सान्त्वनीया इत्यर्थः / प्रवाते = झञ्झावातेऽपि / निष्कम्पा एव = अचला एव / एवं च विरहदशायामपि त्वं निष्कम्पो भवेति भावः / निराकरणेन = परित्यागेन / विक्लवायाः = व्याकुलायाः। तां = प्रत्याख्यानसमयजां / प्रियायाः = शकुन्तलायाः। बलवदशरणः = दृढं व्याकुलः। इत इति / इतः = अस्मात् प्रदेशात् / राजभवनात् / प्रत्यादिष्टा = निराकृता। राजा-(कुछ देर सोचकर ) हे मित्र ! मुझे बचाओ 2 / मेरी रक्षा करो। विदूषक-हे मित्र ! इस प्रकार अधीर होना क्या आपको उचित है ? / इस प्रकार व्याकुल होना तो आपको शोभा नहीं देता है। क्योंकि सत्पुरुष कभी भी शोकाकुल ( शोकमें अधीर / नहीं होते हैं। देखो, कैसी भी प्रचण्ड पवन चले, पर पर्वत तो कभी हिलते तक नहीं हैं / (चलायमान नहीं होते हैं)। राजा हे मित्र ! मेरे द्वारा प्रत्याख्यान करने से विह्वल और व्याकुल हुई अपनी प्रिया शकुन्तला की उस दीन अवस्था को याद करके मैं अत्यन्त ही कातर हो रहा हूँ। क्योंकि जब मैंने उसे अपनी पत्नी स्वीकार करने से इन्कार कर दिया, तो वह 1 'शोकवक्तव्याः पा० / 2 'विक्लवायास्ते सख्यास्तामव' / 3 'प्रत्यादेशात् / 4 'मुहुस्तिष्ठे', 'ततास्तष्ठे।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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