________________ 396 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो ___ मनसिजेन सखे ! प्रहरिष्यता, धनुषि चूतशरश्च निवेशितः ! // 8 // [किञ्च'-] उपहितस्मृतिरङ्गलिमुद्रया, प्रियतमामनिमित्तनिराकृताम् / अनुशयादनुरोदिमि चोत्सुकः, सुरभिमाससुखं समुपैति च ! // 9 // रिष्यता = प्रहर्त्तमुद्यतेन / मनसिजेन = कामेन / धनुषि = स्व कार्मुके / चूत एव शरः = आम्रमञ्जरीशरः / निवेशितः = आरोपितः / यदैव मम प्रियावियोगो जातस्तदैव इह वसन्त वालश्च प्रादुर्भूत इत्यहो! अनर्थपरम्परा-इत्याशयः / [समुच्चयः / अनुप्रासः / द्रुतविलम्बितं वृत्तम् // 8 // उपहितेति / अङ्गुलिमुद्रया = अङ्गुलीयकेन / उपहितस्मृतिः = आनीतस्मृतिः। च = किञ्च / अनुशयात् = पश्चात्तापात् / अनिमित्तं निराकृताम्-अनिमित्तनिराकृताम् = वृथाप्रत्याख्याताम् / अकारणावमानितां / प्रियतमामनु = प्रेयसी लक्ष्यीकृत्य / उत्सुकः = उत्कण्ठितः सन् / रोदिमि = आक्रन्दामि / च = किञ्च / रोकने वाले अज्ञान से मेरा मन जब मुक्त हुआ, और मुझे उसकी जब याद आई, तभी कामदेव ने भी मेरे ऊपर प्रहार करने को अपने धनुष पर चूत ( आम्र की मञ्जरी ) का बाण चढ़ा दिया ! / अर्थात्-वसन्तऋतु आकर उपस्थित हो गई और आमों के मञ्जरी आ गई, जिनको देखकर मेरा विरहानल, मेरी कामाग्नि और भी धधक उठी है / ( आम की मञ्जरी भी कामदेव के पाँच बाणों में से एक है)॥८॥ ___ और हे मित्र ! उस अंगठी को देखकर प्रिया का स्मरण हो जाने से मैं जब उस वृथा अपमानित, तिरस्कृत. एवं छोड़ी हुई अपनी प्रियतमा को याद करके उत्कण्ठित होकर, रो रो कर पश्चात्ताप कर रहा हूं, उसी समय, देखो-यह वसन्त मास के सुख = आनन्द ( पुष्प समृद्धि, कोकिल कूजन आदि के आनन्द ) मेरे सामने उपस्थित हो रहे हैं / अतः ठीक ही लोग कहते हैं, एक विपत्ति के आते 1 क्वचिन्न /