________________ 350 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमोगौतमी-(स्थित्वा, परित्याऽवलोक्य च-) वच्छ ! सङ्गरव ! अणुगच्छदि णो करुणपरिदेविणी सउन्तला, पच्चादेसपरुषे भत्तरि. किं करेदु ववस्सिणी?। [( स्थित्वा परिवृत्यावलोक्य च-) वत्स ! शार्ङ्गरव ! अनुगच्छति नः करुणपरिदेविनी शकुन्तला। प्रत्यादेशपरुषे भर्तरि किं करोतु तपस्विनी?] शारवः-( सरोष प्रतिनिवृत्य-) आः पुराभागिनि ! किमिदं स्वातन्न्यमवलम्बसे ? / (शकुन्तला-भीता वेपते)। शारिवः--शकुन्तले ! शृणोतु भवती।। अनु = पश्चात् / नः = अस्मान् / अनुगच्छति / करुणं परिदेविनी-करुणपरिदेविनी = करुणं विलपन्ती / प्रत्यादेशेन परुषे प्रत्यादेशपरुषे = प्रत्याख्यानकठोरे / स्वभार्यात्वेन तामस्वीकुर्वाणे इति यावत् / तपस्विनी = अनुकम्पनीया वराकी / 'आ:-- इति क्रोधे / पुरोभागिनि = हे दोषैकप्रवणे !हे उच्छङ्खलाचारे ! / 'दोषैकडक परोभागी' त्यमरः / वेपते = कम्पते / इदं स्वातन्त्र्यमिति / कि त्वं कुलाङ्गनाऽनुचितां स्वतन्त्रतामाश्रयसे / किं स्वेच्छयैवाऽऽगच्छसि, स्वं भर्तारं विहायेत्यर्थः / . गौतमी-(ठहर कर, तथा घूम कर पीछे देखकर ) वत्स ! शारिव ! यह शकुन्तला तो करुणस्वर से विलाप करती हुई हमारे पीछे ही पीछे आ रही है। जब इसके पति ने भी इसका इस प्रकार प्रत्याख्यान करके इसके साथ कठोरता का व्यवहार किया है, तब यह बेचारी अब और कर भी क्या सकती है ? / शाङ्गरव-(क्रोध पूर्वक लौट कर ) आः पापिनि ! ऐसी स्वतन्त्रता का अवलम्बन तू क्यों कर रही है ? / अपने पति को छोड़कर हम लोगों के साथ क्यों आ रही है / [शकुन्तला-डर से थर थर काँपती है ] / . शाङ्गरव-हे शकुन्तले ! अब आप ध्यान देकर हमारी बात सुन लीजिए