________________ 330 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [चतुर्थोशकुन्तला--(स्वगतम्-) हद्दी हद्दी ! कधं परिणए जेब सन्देहो ? / .. भग्गा दाणिं दूरारोहिणी आसालदा। [(स्वगतम्- ) हा धिक हा धिक् ! कथं परिणय एव सन्देहः / भग्ना इदानीं दूराऽऽरोहिणी आशालता] / शाङ्गरवः--मा तावत्कृताऽवमर्शामनुमन्यमानः, सुतां त्वया नाम मुनिर्विमान्यः / जनो गर्भ धत्ते स क्षेत्रीत्युच्यते / यथा पाण्डुः क्षेत्री / पाण्डवाश्च पाण्डोः क्षेत्रजाः पुत्राः। प्रतिपत्स्ये = ग्रहीष्यामि / परिणये = विवाहे / दूरमारोहते तच्छीलादूगरोहिणी = अतिभूमिं गता / 'महिषी भूत्वा चक्रवर्तिनं तनयं प्रसोध्ये' इत्यादिरूपा / आशैव लता = आशातन्तुः / भग्ना = छिन्ना। मा तावत् = मैवं वादीः / मैवं कुरु / अस्याग्रिमेण श्लोकेन सहैवान्वयः / कृतेति / मुष्टम् = अपहृतं / चोरितं / स्वम्-अर्थम् = आत्मनो धनं / शकुन्तलां / प्रतिग्राहयता = तुभ्यं प्रत्यर्पयता / येन = मुनिना, कण्वेन / दस्युरिव = चोर इव | पाश्रीकृतोऽसि = पात्रतां नीतोऽसि / कृतोऽवमर्शो यस्याः सा-तां-कृताऽवमर्शी = कृतोपभोगां / विलोभ्य खण्डितामपि / सुतां = शकुन्तलाम् / तद्वि शकुन्तला-( मन ही मन ) हा धिक ! हा धिक ! यहां तो ये विवाह में ही सन्देह कर रहे हैं ! तब दूर तक बढ़ी हुई ( पति के प्रेम, तथा पटरानी बनने की ) मेरी सब आशाएं तो-अब टूट ही गई समझनी चाहिए। शाङ्गरव-हे राजन् ! तुमारे द्वारा अपनी भोली-भाली कन्या को लोभ लालच देकर अपने में उसे आसक्त कर, गान्धर्व विधि से ( स्वेच्छा से ) विवाह कर लेने पर भी, उसको भी स्वीकार करने वाली महर्षि कण्व का आप इस प्रकार अपमान मत करो / जिस-महर्षि ने आप को उसी प्रकार अपनी कन्या का पति स्वीकार कर लिया है, जिस प्रकार चोरे हुए अपने धन का-चोरी करने वाले चोर को ही-दान का पात्र मानकर उसे ही कोई-दान दे दे। भावार्थ-जैसे कोई व्यक्ति चोरी करने वाले चोर को ही अपना चोरा गया 1 'कृतावमर्षी' / 2 'नैव' पा० / '