________________ 300 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [पञ्चमोराजा-( आकर्ण्य, साश्चर्यम्-) एतेन कार्यानुशासनपरिश्रान्ताः पुनर्नवीकृताः स्मः / विदूषक-(विहस्य-) भो! 'गोविन्दारअत्ति भणिदस्स विसभस्स किं परिस्समो णस्सदि ? / [ ( विहस्य-) भो: 'गोवृन्दारक' इति भणितस्य वृषभस्य किं परिश्रमो नश्यति ?] / राजा-( सस्मितं- ) ननु क्रियतामासनपरिग्रहः। __(उभौ-उपविष्टौ, परिजनश्च यथास्थान स्थितः ) / अहो! भवतो निष्कारणोपकार प्रवणतेति भावः / [ व्यतिरेकः / दीपकं / काव्यलिङ्गम् / अनुप्रासः / मालिनी वृत्तम् ] // 7 // , ____कार्यानुशासनेन परिश्रान्ताः- कार्यानुशासनपरिश्रान्ताः = राजकार्यसञ्चालनपरिश्रान्ताः। एतेन = वृक्षादित्यवहारबोधनेन / नवीकृताः = उत्साहिताः, व्यपगतखेदाश्च कृताः स्मः / गौश्चासौ वृन्दारकश्च-गोवृन्दारकः = वृषभश्रेष्ठः / इति भणितस्य = इत्येवं कृतप्रशंसस्य / वृषभस्य = वृषस्य / किं परिश्रमः नश्यति ! = किमु श्रमो नश्यति / न नश्यतीत्यर्थः ! क्योंकि आप ही भाई बन्धुओं के द्वारा किए जाने योग्य उनकी देख-रेख, सहायता, रक्षा आदि सब कार्यों को करते हैं // 7 // राजा-(सुन कर ) इनकी इस प्रकार की उक्ति को सुन कर तो राजकार्य से परिश्रान्त भी हम पुनः नए उत्साह से युक्त ( तरो-ताजा ) से हो गए हैं। विदूषक-(हँस कर ) हे मित्र ! वृषभ ( बैल ) को यदि 'तुम तो भाई सब गाय-बैलों में श्रेष्ठ हो' ऐसा प्रशंसा वाक्य कहा भी जाए, तो भी क्या उसका श्रम ( थकावट ) इससे दूर हो सकता है ? / अर्थात् इस प्रशंसा वाक्य से ही तुम्हारा श्रम ( थकावट ) दूर कैसे हो गया ? / इस प्रशंसा से आपको क्या मिला ? / राजा-(हँस कर ) आओ, आओ, अपनी जगह पर आकर आसन पर बैठो। ( राजा और विदूषक-दोनों बैठ जाते हैं, परिजन लोग यथा स्थान खड़े रहते हैं ) /