________________ ऽङ्कः] 19 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटोका-विराजितम् 289 सख्यौ-(चिरं विचिन्य, सकरुणं-) हद्दी हद्दी ! अन्तरिदा सउन्तला वणराइहिं। [ ( चिरं विचिन्त्य, सकरुण-) हा धिक् हा धिक् ! अन्तरिता शकुन्तला वनराजिभिः] / कण्यः-( सनिःश्वासम्- ) अनसूये ! प्रियंवदे ! गता वां सहचरी। निगृह्य शोकाऽऽवेगं मामनुगच्छतम् / . (सर्व-प्रस्थिताः ) / उभे-तात ! सउन्तलाविरहिदं सुण्णं विअ तवोवणं पविसह्म / [तात ! शकुन्तलाविरहितं शून्यमिव तपोवनं प्रविशामः] / कण्वः-स्नेहप्रवृत्तिरेवंदर्शिनी। ( सविमर्श परिक्रम्य-) हन्त भोः ! शकुन्तलां पतिगृहे विसज्य लब्धमिदानी स्वास्थ्यम् / शिवाः = कल्याणप्रदाः। वनराजिभिः = वनश्रेणिभिः / 'श्रेणी लेखास्तु राजयः' इत्यमरः। निगृह्य = अबरुद्धय / अनुगच्छतं = मत्पृष्ठलग्ने भूत्वाऽऽश्रमं प्रति मया सहैव युवां समागच्छतम् / शून्यमिव = उदासीनमित्र भासमानं / स्नेहप्रवृत्तिः = स्नेहानुबन्धः / एवं द्रष्टुं शीलं यस्याः सा-एवंदर्शिनी = इत्थंविचारपरा / एवं भावयित्री / स्नेहबद्धो लोक एव हि एवं पश्यति, वस्तुतो न जगति शून्यं, न च पूर्ण वा किमपीति भावः / सविमर्श = विचारमभिनीय / स्वास्थ्यं = मनोनिवृतिः / निश्चिन्तता। सुखमिति यावत् / .. दोनों सखियाँ-(देर तक एकटक देखकर, बड़ी करुणा से) हाय ! हाय ! वनराजि (वन की झाड़ियों की पंक्तियों) से शकुन्तला अब तो हमारी आँखों से ओझल हो गई! कण्व हे अनसूये ! हे प्रियंवदे! तुम्हारी सखी तो अब पति गृह को गई / अतः तुम दोनों मेरे पीछे 2 आओ। आश्रम को चलें। [सब-जाते हैं / दोनों सखियाँ-हे तात ! शकुन्तला के विना यह तपोवन तो-जिससे हम लोग प्रविष्ट हो रहे हैं-अब शून्य सा मालूम हो रहा है / कण्व-स्नेह की प्रवृत्ति ( सम्बन्ध एवं कारण) से ही तुम्हें ऐसा मालूम