________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 287 गौतमी-जादे ! परिहीअदि दे गमनवेला / ता निउत्तावेहि पिदरं / ( कण्वं प्रति-) अधवा चिरेण वि एसा ण णिउत्तिस्सदि, ता णिउत्तदु भवं / * [जाते ! परिहीयते ते गमनवेला, तन्निवर्त्तय पितरम् / (कएवं प्रति-) अथवा चिरेणापि एषा न नितिष्यते / तन्निवर्त्ततां भवान् / कण्व:--वत्से ! उपरुध्यते मे तपोऽनुष्ठानम् / शकुन्तला-तवचरणवावारेण णिरुक्कण्ठो तादो, अहं उण उक्कण्ठाभाइणी संवुत्ता। [तपश्चरणव्यापारेण निरुत्कण्ठस्तातः, अहं पुनरुत्कण्ठाभागिनी संवृत्ता] / परिहीयते = अपयाति / गमनवेला = यात्रामुहूर्तः / गमनकालः। निवर्तय = मुञ्च / चिरेण = विपुलेन कालेन / एषा-शकुन्तला / न निवर्तयिष्यति = त्वां न परिहास्यति / भवान् = कण्वः / उपरुध्यते - अतिवर्त्तते / तदनुष्ठानवेला गच्छतीति यावत् / तपश्चरणव्यापारेण = व्रतोपवासयज्ञादिकर्मभिः / निरुत्कण्ठः = निरुत्सुकः / मयि निरक्षेपः / उत्कण्ठाभागिनी = अत्युकण्ठाविकला / केवलं ममैव भवति स्नेहो, . गौतमी-हे पुत्रि ! देख, तेरे गमन का समय बीत रहा है, अतः अब तो तूं अपने पिता को छुट्टी दे। इन्हें आश्रम में वापिस जाने दे। ( कण्व से-) अथवा-यह तो बहुत काल तक भी आपको जाने नहीं देगी, ऐसे ही कुछ न कुछ कहती ही रहेगी / अतः आप अब आश्रमको पधारिए। - कण्व-हे पुत्रि! देख, मेरी तपस्या का ( सन्ध्यावन्दन, जप आदिका ) अनुष्ठान म्क रहा है, ( समय बीत रहा है ) / अतः मुझे तूं अब जाने दे। .. शकुन्तला-तात तो ( आप तो ) तपस्या के व्यापार में लगे रहने के कारण ( मेरे प्रति ) उदासीन हो रहे हैं, मैं ही अब ऐसी हूं, जो इस प्रकार आप लोगों के लिए उत्कण्ठित (चिन्तातुर ) हो रही हूँ। अर्थात्-मेरी आप को अब क्या चिन्ता है / मुझे ही आप लोगों की अब चिन्ता करनी पड़ेगी। 1 'निवर्त्तयिष्यति' पा०।