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________________ 280 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोशारिवः--गृहीतोऽयं सन्देशः / कण्वः--( शकुन्तलां विलोक्य-) वत्से ! त्वमिदानीमनुशासनीयाऽसि / वनौकसोऽपि वयं लौकिकज्ञा एव / शारिवः--भगवन् ! न खलु कश्चिदविषयो नाम धीमताम् / कण्वः-सा त्वमितः पतिगृहं प्राप्यशुश्रूषस्व गुरून्, कुरु प्रियसखावृत्ति सपत्नीजने, भविप्रकृतापि रोषणतया मास्म प्रतीपं गमः / अनुशासनीया = शिक्षणीया / वनोकसोऽपि = वनवासिनोऽपि / लौकिकज्ञाः = लोकाचारपटवः / अतो लोकाचारं त्वां शिक्षयाम इत्यर्थः / अविषयः = अज्ञातः / सा त्वम्-इतः = आश्रमादस्मात् / पतिगृहं प्राप्य / इदं-'गुरून् शुश्रूषस्वे'त्यादिवक्ष्यमाणश्लोकेन सह सम्बध्यते / शुश्रूषस्वेति / गुरून् = पूज्यान् / पत्युर्गुरुजनान् जनन्यादीन् / शुश्रूषस्व = सेवस्व / समानः पतिर्यासांता:-सपत्न्यः। ता एव जनस्तत्र = सपत्नीसमूहे / प्रियसखी शारिव-भगवन् ! आपके इस सन्देश को हमने खूब अच्छी तरह समझ लिया है। इसी प्रकार उन्हें हम जाकर कह देंगे। कण्व-(शकुन्तला की ओर देखकर ) हे वत्से ! अब मैं तुझे भी कुछ उपदेश ( शिक्षा ) देता हूं। यद्यपि हम वनवासी तापस हैं, पर लोकाचार को भी हम खूब जानते हैं। शाङ्गरव-हे भगवन् ! आप सदृश बुद्धिमानों के लिए भला कौन सी ऐसी बात है जो अज्ञात हो सकती है ? / आप तो सर्वज्ञ हैं / कण्व-हे पुत्रि ! तूं यहाँ से पति के घर में जाकर (1) सास, ससुर आदि अपने गुरुजनों ( बड़ों ) की सेवा करना / और (2) अपनी सपत्नियों ( सौतों ) से अपनी प्रिय सखियों की तरह ही प्रेमपूर्वक व्यवहार करना। (3) और पति के द्वारा किसी समय तिरस्कार करने, या विपरीत आचरण करने पर भी, क्रोध के वश हो, उससे कभी अप्रसन्न और विरुद्ध मत होना। अर्थात् पति पर कोप कभी मत करना / और ( 4 ) अपने
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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