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________________ 244 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोसुद्धहिअआ पदं कारिदा। [ स्मृत्वा-] अधवा ण तस्स राएसिणो अवराहो, दुव्वासासाबो क्खु एसो पहवदि / अण्णधा कधं सो राएसी तादिसाई मन्तिअ अत्तिअस्स कालस्स वात्तामात्तं पि ण विसज्जेदि ? || विचिन्त्य-1 ता इदो अहिण्णाणं अङ्गुलीअअं से विसज्जेम / अधवा दुक्खसीले तवस्सिजणे को अब्भत्थीअदु ? / णं सहीगामी दोसो त्ति व्ववसाइदं पि ण पारेम, तादकण्णस्स वा प्पवासपडिणिउत्तस्स दुस्सन्तपरिणीदं आवण्णसत्तं सउन्तलं णिवेदिदं / ता एत्थ दाणिं किं णु क्यु अमोहिं करणीज्जं ? / [ ननु प्रभाता रजनी। तच्छीघ्र कायनं परित्यजामि / अथवा लघुलघूत्थितापि किं करिष्यामि ? / न मे उचितेषु प्रभातकरणीयेषु हस्तपाद प्रसरति / काम इदानीं सकामो भवतु, येन असत्यसन्धे जने प्रियसखी शुद्धहृदया पदं कारिता। (स्मृत्वा-) अथ वा न-तस्य राजर्षेरपराधः। दुर्वासःशापः खल्वेष प्रभवति / अन्यथा कथं स राजर्षिस्तादृशानि मन्त्रयित्वा, एतावतः संमार्जनादिषु / उचितेषु = अवश्यकरणीयेष्वपि / ' हस्तौ पादौ च-हस्तपादं = करचरणादिकं / प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः / न प्रसरति = न प्रचलति। कामः = हिताऽहितविचारराहित्येन प्रवर्तनशीलो मदनः। सकामः = सफलमनोरथः / येन = कामेन / असत्या सन्ध्या यस्य तस्मिन्-असत्यप्रतिज्ञे / जने = दुष्यन्ते / शुद्धहृदया = वञ्चनाशून्यहृदया। पदं = स्नेहबन्धरूपं व्यवसायं / प्रभवति = विजृम्भते / सर्व सेज पर से उहूँ। अथवा जल्दी-जल्दी उठकर भी मैं क्या कर लूँगी? / चिन्ता के कारण अवश्यकरणीय प्रभातकालिक कृत्यों में भी ( स्नान, ध्यान, जप, पूजा, गृह कृत्य आदि में भी) मेरे हाथ-पाँव नहीं चलते हैं ! / अब उस निर्दय-हृदय कामदेव की इच्छा पूरी हुई है, जिसने ऐसे झूटे, मिथ्या प्रतिज्ञा करने वाले पुरुष (दुष्यन्त ) में शुद्ध हृदया सखी शकुन्तला का मन आसक्त (अनुरक्त) करा दिया है। [ कुछ स्मरण करके ] अथवा-उस धर्मात्मा राजर्षि दुष्यन्त का भी इसमें कोई दोष नहीं है। यह तो दुर्वासा के शाप का ही प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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