________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 217 शकुन्तला-(ससितम्-) असन्तोषे उण किं करेदि / [असन्तोषे पुनः किं करोति ?] / * राजा-इदम्-(-इति व्यवसितः)। ( शकुन्तला- वक्त्रं ढौकते ) / यदनुभूतं / इदमपि = एतदपि / उपकृतिपक्षे = उपकारकोटौ गण्यताम् / ननु = यतः-मधुकरः = भ्रमरः। कमलस्य = पद्मस्य / गन्धमात्रेण = सौरभमात्रेणैव / सन्तुष्यति = प्रसीदति / तदलमुपकारान्तरचिन्तयेत्याशयः। [प्रतिवस्तूपमा / दृष्टान्तो बा / 'आर्या' जातिः] // 37 // __ असन्तोषे = गन्धमात्रेण यदि न सन्तुष्यति, तदा। किं करोति = भ्रमरः किं कुरुते 1 / यदि भवान् मम वदनगन्धमात्रेण न तुष्येत्तदा मया कि प्रत्युपकरणीयमिति सरलः प्रश्नाशयः / व्यवसितः= मुखं चुम्बितुं प्रवृत्तः / ढौकते = चुम्बितुं ददाति / 'दूरी करोति' 'अपनयतीति व्याख्यानं तु न काव्यरहस्यविदां / तदेवं तयोर्बाह्यमाभ्यन्तरं च यथेच्छ सुरतं प्रवृत्तमित्याशयः। - संभोगस्य रङ्गे दर्शयितुमयोग्यतया, सम्भोगसमात्यनन्तरं तौ विघटयितुं द्वितीय पताकास्थानकं योजयति महाकविःकमल की गन्ध से ही सन्तुष्ट हो जाता है, चाहे मकरन्द रस पान करने को उसे मिले या न मिले / अतः तुमारा यही प्रत्युपकार बहुत है। __ शकुन्तला-( हँसती हुई-) परन्तु भ्रमर केवल कमल की गन्ध से ही यदि सन्तुष्ट न हो, तो वह क्या करता है / राजा-यह करता है-(अधरोष्ठ का चुम्बन आदि यथेच्छ बाह्य रति क्रीडा करता है)। [ शकुन्तला-अपने मुख और अधरोष्ठ को उसके और भी पास में कर देती है। इसके बाद वहाँ जो होने लगा, उसे कवि की लेखनी लिखने में असमर्थ है, सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं, कि-यहाँ इसके अनन्तर क्या होने लगा। इसके बाद के प्रसंग को नाटकों में दिखलाने की आज्ञा शास्त्रकारों की नहीं है, अतः कवि ने इसके आगे का सरस वृत्तान्त स्पष्ट नहीं लिखा है /