SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 192 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [तृतीयोबन्धुजनशोचनीया न भवति, तथा करिष्यसि'] / राजा-भद्रे ! किंबहुना ?परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य नः। समुद्ररसना चोर्वी, सखी च युवयोरियम् // 23 // यथा = येनापायेन / इयं = मुग्धा तपस्विनी शकुन्तला / बन्धुभिर्जनैः शोचनीयाबन्धुजनशोचनीया = प्रियजनशोच्या / अयोग्ये पदे निवेशिता चेद्वान्धवदुःखहेतुरस्या अयमनुरागो भवेदिति भावः / भद्रे ! = हे शुभे ! बहुना = अनल्पभाषितेन / किं = किं प्रयोजनं / सारं ते वच्मीत्याशयः। . . परिग्रहेति / परिग्रहाणां बहुत्वं, तस्मिन्-परिग्रहबहुत्वे = मम ललनाबाहुल्येऽपि / 'परिग्रहः परिजने, पत्न्यां, स्वीकारमूल्ययोः' इति विश्वः / समुद्रो रसना यस्याः सा-समुद्ररसना = सागरमेखला ( समुद्रान्ता ) / 'उर्वी च = वसुन्धरा च / युवयोः = भवत्योः। इयं सखी च = शकुन्तला च / मुद्रया सहिता समुद्रा, रसना यस्याः सा-समुद्ररसना = मितभाषिणी। मुदं राति ददातीति मुद्रं = रत्नं / तेन सहिता समुद्रा, रसना यस्याः सेति समासे-रत्नमेखलाललिता चेत्यर्थः / इमे द्वे, मे कुलस्य = अस्मद्वंशस्य / प्रतिष्ठे = मानवर्द्धिन्यौ / संस्थापिके / 'प्रतिष्ठा गौरवे, स्थितौ' इति हैमः / एवञ्चेयमेव मम पट्टमहिषी भविष्यतीत्याशयः [ प्रतिष्ठात्वारोपादतिशयोक्तिः / तुल्ययोगिता / श्लेषः, रूपकमनुप्रासश्च / ] // 23 // जाता है। अतः हमारी यह संखी शकुन्तला अपने बन्धुजनों से शोचनीय न हो, (इसकी दुर्दशा को देखकर इसके बन्धुजनों को-हमलोगों को, तथा इसके पिता तात कण्व को भी, दुःखित न होना पड़े। ऐसा ही आप करें / इसका पूरा ध्यान रखें। राजा-हे सुभगे ! अधिक क्या कहूँ यद्यपि मेरे अन्तःपुर में स्त्रियों की कमी नहीं है, मेरे प्रिया भार्या भी बहुत सी हैं. परन्तु हमारे इस पौरवकुल की प्रतिष्ठा को तो मैं दो ही वस्तुओं से समझता हूँ-एक तो समुद्र पर्यन्ता पृथिवी से, दूसरे आपकी इस सखी से / अर्थात्-अनेक स्त्रियों के रहते हुए भी, मैं शकुन्तला को ही अपनी पटराणी (महारानी) बनाऊँगा। और इसी का पुत्र मेरी गद्दी का उत्तराधिकारी भी होगा // 23 // 1. 'करिष्यति' इति पाठे-'भवा'निति शेषः।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy