________________ 190 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [तृतीयो प्रियंवदा-तेण हि इअं णो पिअसही तुम ज्जेव उद्दिसिभ भअवदा मअणेण इमं अवस्थन्तरं पाविदा, ता अरिहसि अब्भुववत्तीए जीविदं से अवलम्बइहूँ। [तेन हि इयं नः प्रियसखी त्वामेवोद्दिश्य भगवता मदनेनेदमवस्थान्तर प्रापिता, तदर्हसि अभ्युपपत्त्या जीवितमस्या अवलम्बयितुम् ] / राजा-भद्रे ! साधारणोऽयं प्रणयः / सर्वथाऽनुगृहीतोऽस्मि / शकुन्तला-(अनसूयामवलोक्य-) हला ! अलं वो अन्तेउरविरहपज्जुस्सुएण राएसिणा उवरुद्धेण / [(अनसूयामवलोक्य-- ) हला! अलं वामन्तःपुरविरहपर्युत्सुकेन राजर्षिणोपरुद्धेन ] / . मम अत्र किमस्ति, भवत्सख्या येनार्तिपरिहारः स्यादिति प्रश्नाशयः / नाहं राजेत्याशयो वा। त्वामेवोद्दिश्य = त्वां निमित्तीकृत्य / इदं = विभाव्यमानम् / अन्यावस्थाअवस्थान्तरं = दशाविशेषं / प्रापिता=नीता / अभ्युपपत्त्या = स्वीकारेण / 'अभ्युपपत्तिरनुग्रहः' इति शाश्वतः / अवलम्बयितुं = धारयितुम् / अर्हसि = योग्योऽसि / साधारणः = उभयोरपि समानावस्थः / ' सर्वथा = भवत्प्रार्थनया सर्वनो भावेन / स्वीकृतिरतो दर्शिता। अन्तःपुरस्य = तत्रत्यरमणीलोकस्य, विरहेण पर्युत्सु कस्तेन = अन्तःपुरिकालोकविरहविकलेन / बहुवल्लभेन / राजर्षिणा = अनेन दुष्यन्तेन / उपरुद्धेन = अवरुद्धेन / वां = युवयोः / अमुना व्यापारेण नास्ति किमपि प्रयोजनमित्याशयः / प्रियंवदा-हाँ, तो-हमारी इस सखी को आपके ही कारण भगवान् कामदेव ने पीडित करके इस दशा को पहुंचा दिया है / अतः इस पर आप कृपा करें। और इसके प्राणों को, एवं इसके जीवन को बचाना-आपका उचित कर्त्तव्य है। राजा-हे सुभगे! हमारा तो दोनों का ही परस्पर अनुराग समान ही है / इसमें प्रार्थना की आवश्यकता ही नहीं है / अतः आपके इस कथन से मैं सर्वथा अनुगृहीत हूँ। शकुन्तला-( अनसूया की ओर देखकर ) हे सखि ! अपने अन्तःपुर ( महल ) की स्त्रियों के विरह में उत्सुक, अन्यासक्त, बहुवल्लभ इन राजर्षि ( दुष्यन्त ) को तुम लोग इस तरह क्यों दबा रहो हो ? / और क्यों रोक रही हो / अर्थात् इनके हृदय में मेरे लिए स्थान ही कहाँ होगा ? ! इनके तो अनेक स्त्रियाँ पहिले से ही विद्यमान हैं।