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________________ 288 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [तृतीयोप्रियंवदा-( सस्मितम्- ) दाणिं लद्घोषधो उध्वसमं गमिस्सदि / [( सस्मितम्-) इदानीं लब्धौषध उपशमं गमिष्यति / . . (शकुन्तला-सलजा तिष्ठति ) / प्रियंवदा-महाभाअ ! दोण्णम्पि वो अण्णोण्णाणुराओ पञ्चक्खा, सहीसिणेहो उण मं पुणरुत्तवादिणी करोदि। [महाभाग ! द्वयोरपि युवयोरन्योन्याऽनुरागः प्रत्यक्षः। सखीस्नेहः पुनर्मा पुनरुक्तवादिनीं करोति ] / कामः | तजनितस्तापः-नातिबाधते-नातितमां बाधते कच्चिदिति प्रश्नः / सस्मितमिति / श्लेषेण कृतं प्रश्नं बुद्ध वा तथैवोत्तरयन्त्याः स्मितं युक्तमेव / मनोरथसम्पत्त्या वा स्मयः / इदानीं = त्वत्समागमे सति / लब्धमोषधं येनासोलब्धभेषजः, शरीरतापः। उपशमं = शान्ति, निर्वृतिं च / एतेनाक्षरसङ्घातो नाम नास्यलक्षणमुक्तं- 'वर्णनाऽशरसङ्घातश्चित्राथेंरक्षरमितै'रिति / अन्योन्यानुरागः = परस्परस्नेहः। प्रत्यक्षः = स्पष्ट एव / सख्यां स्नेहः सखीस्नेहः = स्ववयस्यानुरागः / पुनरुक्तं वदति तच्छीला, तां-पुनरुक्तवादिनीम् = पुनरुक्तभाषणशीलाम् / स्पष्टस्यापि परस्परानुरागस्यैवाभिधानात्पुनरुक्तिः। एवञ्च सखीस्नेहात्तदीयाऽनुरागस्यैवाभिधानात्पुनरुक्तिः। एवञ्च-सखीस्ने हात्तदीयमनु [ दूसरा गूढ अर्थ-आपकी सखी को कामकृत सन्ताप अधिक व्याकुल तो नहीं कर रहा है ?] / प्रियंवदा--(हंसकर) हाँ, सन्ताप तो बहुत ही ज्यादा था। परन्तु अब उसकी औषध भी मिल ही गई है, (आप इसे मिल ही गए हैं)। अतः इसका वह सन्ताप अब शीघ्र ही शान्त हो जायगा / [शकुन्तला-लजित हो सिकुड़ कर बैठी रहती है। प्रियंवदा-हे महाभाग ! यद्यपि आप दोनों का परस्पर अनुराग. प्रत्यक्ष ही है, क्योंकि-आप दोनों की ही परस्पर के विरह' में ऐसी चिन्तनीय अवस्था हो ही रही है। परन्तु सखी के प्रति मेरा स्नेह ही मुझे पुनः उसी बात को कहने को प्रेरित कर रहा है।
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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