________________ ऽङ्कः] 12 अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 177 अशिशिरतरैरन्तस्तापैर्विवर्णमलीमसं निशि-निशि भुजन्यस्ताऽपाङ्गप्रवर्तिभिरश्रुभिः / अनतिलुलितज्याघाताऽङ्कान्मुहुर्मणिबन्धना कनकवलयं सस्तं-स्रस्तं मया प्रतिसार्यते // 15 // प्रियंवदा-(विचिन्त्य- ) हला ! मअणलेहणं दाणिं से करीअदु, अशिशिरेति / निशि निशि = प्रतिनिशं / अन्तस्तापैः = आन्तरिकसन्तापैः / हृदयदाहै:-हेतुभूतैः / अशिशिस्तरैः = अत्युष्णैः / भुजे न्यस्तादपाङ्गाद्विवर्त्तन्ते तच्छीलैः-भुजन्यस्तापाङ्गविवर्तिभिः = हस्ततलन्यस्तनयनान्तनिर्गतैः / अश्रुभिः = लोचनजलबिन्दुभिः। विवणे च तन्मलीमसञ्च-विवर्णमलीमसं = विवर्णमलिनं, कनकस्य वलयं-कनकवलयं = स्वर्णकङ्कणम्,-न अतिलुलितो नातिशुष्को ज्याघातस्याऽङ्को यस्यामौ-तस्मात्-अनतिलुलितज्याऽऽघाताङ्कात् = ईषच्छष्कमौर्वीकिणभूषितात्, मणिबन्धनात् = प्रकोष्ठात्. मुहुः = भृशं / स्रस्त-स्रस्तं = भ्रष्ट-भ्रष्टं सत् / पुनः = पुनरपि / प्रतिसार्यते = मया स्वस्थाने एव स्थाप्यते / [ स्वभावोक्तिः / हरिणी वृत्तम् ] // 15 // (बाएँ हस्ततल पर, या) सोते समय बाएँ भुजा पर रखे हुए नेत्र के कोने से, धारारूप से बहते हुए, भीतर की तपन से अत्यन्त उष्ण, ( गर्म-गर्म ) आँसुओं से काले और मलिन पड़े हुए, अपने हाथ के सोने के कड़े को, जोकि-धनुष की डोरी को बारंबार खींचने से जिसमें किञ्चित् शुष्क प्रायः ताजे दाग पड़े हुए हैंऐसे मणिबन्धस्थान ( कलाई, पोहचा) पर से खिसक-खिसक कर गिरता रहता है, उसको मैं रात भर बारंबार हाथ में डालता रहता हूँ। अर्थात्-मैं इतना दुर्बल होगया हूँ, कि-अपने हाथ के सोने के कड़े को-जो अनवरत गिरती हुई आँसुओं की धारा से काला और मलिन हो गया है, और जो बार 2 हाथ से निकल 2 कर गिरता रहता है, उसको रातभर फिर से हाथ की कलाई में डालता रहता हूँ / इसी प्रकार भेरी प्रत्येक रात बीतती है // 15 // प्रियंवदा-( कुछ सोचकर ) हे सखि ! इस कार्य की सिद्धि के लिए