________________ 132 अभिज्ञानशाकुन्तलम्विदूषकः--गहीदपाधेयो किदो सि तए, अदो अणुरक्तं तपोवणं' ति तकेमि। [ गृहीतपाथेयः कृतोऽसि तया, अतोऽनुरक्तं तपोवनमिति "तर्कयामि]। राजा-सखे! तपस्विभिः कैश्चित्परिज्ञातोऽस्मि / चिन्तय तावत्केना. ऽपदेशेन पुनराश्रमपदं गच्छामः / पथि व्याजात्परावृत्त्यापि दर्शन 'मित्यादिना कामशास्त्रेषु-विलम्ब्य गमनादेरनुरागलक्षणतयाऽभिधानात् / / अनुप्रासः, हेतुश्वालङ्कारौ] // 13 // गृहीतः पाथेयो येनासौ-गृहीतपाथेयः = स्वीकृतशम्बलः / तया = शकुन्त. लया। प्रस्थिताय पथिकाय बान्धवा उत्साहवर्द्धनार्थ मार्गे उपभोगार्थ मिष्टान्नादिकं पाथेयं प्रयच्छन्तीति-लोकस्थितिः / अनुरागसूचनेन च सा रतिमार्ग भवन्तमुत्साहयतीवेत्याशयः। 'कृतं त्वयोपवनं तपोनामिति पश्यामीति पाठान्तरे-त्वया तपोवनम् = इदं शान्तमाश्रमपदम्। उपवन = क्रीडाकाननमिव / कृतं = निष्पादितं / परस्परानुरागाङ्कुरोत्पत्तेरनुरूपमुपवन मेव, न तपोवनमिति तादृशानुगगचर्चाविष्करणादिभिरिदमाश्रमपदमुपवनतां त्वया नीतमिति, शमप्रधानस्य तपोवनस्यानुरागप्रधान. तेदानी जातेत्याशयः। परिज्ञातः = 'महाराजोऽयं दुष्यन्त' इति तैतोऽस्मि / अत एव 'नेपथ्येअपने वल्कल को झूटे ही छुड़ाने के बहाने से, वह मेरी ओर घूम 2 कर, सानुराग भाव से मुझे बार 2 देख रही थी // 13 // विदूषक-वाह, तब तो उसने आपको प्रेममार्ग के लिए पाथेय का ही प्रदान कर दिया है। इस प्रकार प्रेमलीला से तो आपने तपोवन को भी अपने अन्तःपुर ( महल ) का उपवन (बगीचा) ही मानो बना लिया है ! / [पाथेयपरदेश जाते हुए अपने बान्धव को बन्धुजन मार्ग में भोजन आदि के लिए कुछ मीठी वस्तु लड्डू आदि देते हैं, उसे 'पाथेय' कहते हैं / राजा-मित्र ! मुझे इस आश्रम के कुछ तपस्वियों ने पहिचान लिया है। अतः कोई ऐसा बहाना ढूंढ़ निकालो, जिससे हम पुनः इस आश्रम में (अपनी प्राणप्रिया शकुन्तला से मिलने ) जा सके। 1 'किदं तुए उववणं तपोवणं त्ति पेक्खामि' / [कृतं त्वयोपवनं तपोवनमिति पश्यामि]-पा०