________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 123 विदूषकः-(स्वगतम्- ) भोदु, ण से पस्सअं वडइस्सं / (प्रकाश-) भो ! जइ सा तवस्सिकण्णआ अणब्भत्थणीआ, ता किं ताए दिट्ठआए ? / [( स्गतं ) भवतु, नाऽस्य प्रश्रयं वर्द्धयिष्यामि / (प्रकाशं-) भोः ! यदि सा तपस्विकन्यका अनभ्यर्थनोया, तत्किं तया दृष्टया ?] / राजा--धिङ् मूर्ख !निवारितनिमेषाभिनेत्रपङ्क्तिभिरुन्मुखः / नवामिन्दुकलां लोकः केन भावेन पश्यति ? // 8 // पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुष्यि'त्यमरः / शकुन्तलामधिकृत्य = तां विषयीकृत्यैव मया 'द्रष्टव्यानां परं न दृष्ट' मित्युक्तं, न त्वात्मनं तथा मत्वेत्याशयः / अस्य = दुष्यन्तस्य / प्रश्र्यम् = अनुरागातिशयम् / 'प्रश्रय-प्रणयौ समौ' इत्यमरः / अनभ्यर्थनीयान प्रार्थनीया / निवारितेति / निवारितो निमेषो यासां ताभिः-निवारितनिमेषाभिः = निमेषशून्याभिः, नेत्राणां पङ्क्तिभिः, नेत्रपङ्क्तिभिः = लोचनराजिभिः, उत् = शकुन्तला के विषय में ही यह बात कह रहा हूं। उसको तुमने नहीं देखा है, यह तुम्हारे नेत्रों की निष्फलता ही है। विदूषक -( मन ही मन ) मुझे यहाँ ऐसा करना चाहिए, कि-मैं इसकी इस कामवासना को अधिक उत्तेजन नहीं दूं तो ही अच्छा है / (प्रकट में) हे मित्र ! जब उस तापस-कन्या से हमें और तुम्हें कोई प्रयोजन ही नहीं है, तब उसे देखने की भी क्या आवश्यकता है ? / अर्थात् वह तो ब्राह्मणकन्या होने से तुम्हारे विवाह के योग्य ही नहीं है, अतः उसकी चर्चा ही व्यर्थ है / राजा-धिक मूर्ख ! लोग ऊपर की ओर मुख करके, निर्निमेष लोचनों से, नई चन्द्रकला को (दूजके चन्द्रमा को) किस भाव से, किस अभिप्राय से देखा करते हैं ? / वहाँ