________________ 104 अभिज्ञान-शाकुन्तलम्- [द्वितीयोकामं प्रिया न सुलभा, मनस्तु तद्भावदर्शनाऽऽश्वासि / अकृतार्थेऽपि मनमिजे, रतिमुभयप्रार्थना कुरुते // 1 // ( स्मितं कृत्वा- ) एवमात्माऽभिप्रायसम्भावितेष्टजनचित्तवृत्तिः प्रार्थयिता विप्रलभ्यते / कुतः काममिति / काम= यद्यपि, प्रिया = कान्ता, शकुन्तला। तु = किन्तु, मनः= मच्चित्तं, तस्याः = प्रिया याः, भावस्य = मय्यनुरागसूचकस्य विलम्ब्यगमनादेः, दर्शनेन = निरीक्षणेन, आश्वसिति तच्छीलं-तद्भावदर्शनाश्वासि = तदनुरागनिश्चयास्कृताश्वासं / 'वर्त्तते' इति शेषः / यत:-मनसिजे = मन्मथे, [ बाह्याभ्यन्तरसंप्रयोगाऽलाभात्-] अकृतार्थेऽपि = अचरितार्थेऽपि, केवलम्-उभयोः प्रार्थनाउभयप्रार्थना = परस्परमिङ्गितचेष्टित कटाक्षपातादिव्यतिकरण स्वानुरागसूचनमेव, रतिं = सुखं, कुरुते = विधत्ते एव / प्राणसमा-समागमसुखाऽलाभेऽपि तच्चेशभिरेव मनो मे मोदते इत्याशयः / [अत्र विरोधाभासः श्रुत्यनुप्रासः, 'रतिमुभयप्रार्थने'त्यादिनाऽर्थान्तरन्यासश्च ] // 1 // स्मितमिति / आत्मनोऽपि कन्दर्पकदर्थनादाशामात्रमुदितमात्मानं दृष्ट्वा वा स्मयः। आत्मनोऽभिप्रायेण - मनोरथेन, सम्भाविता = कल्पिता, इष्ट जनस्य = प्रियजनस्य, चित्तवृत्तिनासौ तथा, प्रार्थयिता = कामिजनः, विप्रलभ्यते = विडम्ब्यते। उच्यत इति यावत् / कामिन्याः सहजामपि लीलामात्मानु तक प्राप्त नहीं हुई है, तो भी मेरे प्रति उसके भी भावों ( अनुराग सूचक विलम्ब करके जाना, कटाक्ष पूर्वक निरीक्षण आदि ) को देखकर, मेरे मन को कुछ धीरज बन्धी हुई है। क्योंकि मनसिज ( काम ) वासना यद्यपि कृतार्थ न हो, तो भी दोनों की परस्पर इच्छा व चाह ही सुखप्रद होती है। अर्थात्शकुन्तला के हस्तगत न होने से सुरत सुख की प्राप्ति के अभाव में मेरी कामवासना तो पूरी नहीं हुई है, पर 'उसका भी मेरे प्रति वैसा ही प्रेम व अनुराग है, जैसा कि मेरा उसके प्रति है' यह जानकर ही मुझे आनन्द एवं सुख हो रहा है / [ उभय प्रार्थना-दोनों की परस्पर चाह ] // 1 // (कुछ हँसकर ) अपने अभिप्राय ( इच्छा ) के अनुसार ही अपने प्रियजन की भी चित्तवृत्ति की वृथा संभावना करके ही प्रार्थयिता ( कामी-आशिक ) अपने मन को यों ही झूठी 2 आशा और कल्पनाओं से बहलाया करता है।