________________ 96 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [प्रथमोशाखा-परिलग्नञ्च वल्कलं / तावत् प्रतिपालयतं मां, यावदेनन्मोचयामि] ( इति राजानमवलोकयन्ती, सव्याज विलम्ब्य, सहसखीभ्यां निष्क्रान्ता)। राजा-( निःश्वस्य'-) गताः सर्वाः ! भवतु', अहमपि गच्छामि / २शकुन्तलादर्शनादेव मन्दौत्सुक्योऽस्मि नगरगमनं प्रति / यावदनुयात्रिकाननतिदूरे तपोवनस्य निवेशयामि / न खलु शक्तो. ऽस्मि "शकुन्तलादर्शनव्यापारादात्मानं निवर्तयितुम् / बकस्य शाखायां परिलग्न = कुरुबकशाखापरिलग्नं = कुरुब कतरुवि-पासक्तम् / इति = इत्यभिधाय / सव्याजम् = एवं मिषेण, विलम्ब्य = रुद्धगमना। . मन्दमौत्सुक्यं यस्यासौ तथा = मन्दोत्कण्ठः / अनुयात्रा प्रयोजनं, शीलं वा येषान्तान् अनुयात्रिकान् = मदङ्गरक्षकान् सैनिकान् , निवेशयामि = स्थापयामि / शकुन्तलाया दर्शनमेव व्यापारस्तस्मात् = शकुन्तलामुखावलोकनव्यसनात् / निवर्तयितुम् = अवरोद्धम् / तीखे अग्रभाग ) से विक्षत हो गया है / और देख, देख, इस कुरुबक की शाखा में मेरा यह वल्कल ( कपड़ा ) भी फंस गया है / अतः थोड़ी देर तुम दोनों ठहरो, तो मैं इसे छुडा लं, तब तुम्हारे साथ चलू / [ ऐसा कह कर वल्कल छडाने के बहाने से कुछ देर वहाँ रुककर, राजा की ओर कटाक्षपात करती हुई, सखियों के साथ शकुन्तला जाती है। राजा-[ऊँची सांस लेकर ] ये सब तो गई। अच्छा मैं भी चलूं / शकुन्तला को देखकर तो मेरी अब नगर (राजधानी) जाने की इच्छा व उत्सुकता ही नहीं हो रही है / अच्छा, पहिले तो मेरे साथ के सिपाहियों को मैं तपोवन से दूर कहीं ठहराऊँ / क्या करूँ, मैं तो अपने मन को शकुन्तला को देखने के इस व्यापार से हटा ही नहीं सक रहा हूँ। अर्थात् मेरा मन तो बार 2 शकुन्तला को ही देखने को ज्याकुल हो रहा है। इसलिए राजधानी भी जाने की मेरी इच्छा नहीं हो रही है / क्या करूँ ? / 1 क्वचिन्न / 2 एतत्पर्यन्तं पाठः कचिन्न / 3 'यावदनुयात्रिकान् समेत्य नातिदूरे तपोवनस्य निवेशयेयम्'। 4 'शक्नोमि' / 5 'दर्शने'ति कचिन्न /