________________ द्वात्रिंशत् अष्टांत्रिंशत् // 73 // चत्वारिंशदादौ वा / एकादश षोडश षोडत् षोढा षड्ढा / / 74 / / ओजोऽञ्ज / सहाम्भस्तमस्तपसष्टः न लुप्, तपसाकृतं // 75 // पुंजनुषोऽनुजान्धे / / 76 / / आत्मनः / पूरणे // 77 / / मनसश्चाज्ञायिनि / आत्मनाज्ञायी / / 78 / / परात्मभ्यां डेः / परस्मैपदं // 79 / / मध्यान्ताद् गुरौ / // 80 / / नेसिद्धस्थे / सप्तम्या न लुप्, समवर्ती // 81 / / पश्यद्वाग्दिशो हरयुक्तिदण्डे / / 82 // गवियुधेः स्थिरस्य षः, गविष्ठिरः // 83 / / अंजनादीनां गिरौ / दीर्घ अञ्जनागिरिः // 84 // गतिकारकस्य / नहि वृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनौ दीर्घः परीणत् / इतितत्पुरुषः कर्मधारयश्च // 2-3 // // 4 // बहुव्रीहिः // // 1 // एकार्थ चानेकं च / समानाधिकरणं नामाध्ययं एक मनेकं चान्यार्थे समस्यते, स च बहुव्रीहिः / आरूढो वानरो यं स आरूढवानर: ऊढो रथो येन सः // 2 // क्ताः / प्राक्, ऊढ रथः, उपहृतो बलियस्मै स उपहृतबलि: भीतशत्रुः चित्रगुः वीरपुरुषकः // 3 // अव्ययम् / दश समीपे येषां ते उपदशाः // 4 // परतः / स्त्री स्त्र्येकार्थेऽनूङ् पुंवत्, पट्वीमृदुभार्यः // 5 // इनः / कच् स्त्रियां, बहुदण्डिका