________________ चतुर्थ स्तिर्यविभागा गजशूण्डजलबिन्दौ-वमथुः' करशोकरः / हस्तिनासा' करो हस्तः, शुण्डा च गजनासिका // 2214 // शुण्डाग्रं पुष्करं' ज्ञेयं. कणिका' तु गजाङ्गुलिः / विषाणो' गजदन्तौ स्तां स्कन्ध प्रासन' मुच्यते // 2215 // चूलिका' कर्णमूल स्याद्, गजकर्णस्य मूलके / इषाका' चेषिका चाऽक्षि-कूटकं नेत्रगोलके // 2216 // ईषिका पुन रोषोका, चेति नामानि सन्ति / अपाङ्गदेशो निर्याणं', स्यात् गण्ड' स्तु कट 2 स्तथा // 2217 // करट' श्चेति नामापि, गण्डस्थलस्य वर्तते / अवग्रहो' 5 ग्राह इच, द्वयमिदं हि भालके // 2.18 // कुम्भयोरध प्रारक्षो', नाम वै कथ्यते किल / कुम्भौ' तु शिरस: पिण्डौ. विदुः' कुम्भयोर्मध्यकम् // 2216 // तस्याधो वातकुम्भः स्यात्, वाहित्थं च ततोऽप्यधः / प्रतिमानं' वाहित्याधः, पेचकः' पुच्छमूलकम् // 2220 // गजस्य तु पुरोभागो, दन्तभागो' हि कथ्यते / पार्श्वक: पक्षभाग' श्च, मन्यते पण्डितैः पुनः // 2221 // पूर्वो जङ्घादिदेशो हि, गात्रं' गजम्य कथ्यते / तस्य स्यात् पश्चिमे भागे. ह्यपरा' चाऽवरा२ वरम् // 2222 // गज चर्मणि रक्तबिन्दुः, पद्म' पद्मक मुच्यते /