________________ प्रस्तावना कोशकला भारतीय वाङ्मय की विशिष्टता का प्रतिपादन करती है। किसी भी भाषा का व्याकरण तत् तत् भाषा का स्वरूप निर्धारण कर उसका नियमन करता है, तो कोश उस भाषा के स्वरूप निर्माण की प्रक्रिया का उद्घाटन करता है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने ठीक हो कहा है 'अष्टाध्यायो जगन्माता शप्रमर कोषो जगत्पिता' व्याकरण का कार्य भाषा के मूल में स्थित तत्वों का उद्घाटन करना है, तो कोश उद्घाटित तत्वों का संक्षिप्त सार्थ स्वरूप प्रकट करता है। संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य में कोशकारों को एक बृहत्परम्परा रही है, जिनमें जैन एवं बौद्ध कोशकारों का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है। जैन कोशकार कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि कोश से लेकर प्रस्तुत सुशील नाममाला' में एक सूक्ष्म तात्विक तत्वसूत्र ग्रथित-सा दिखाई दे रहा है। परम्परा निर्वाह कर तद्रूप कोश का निर्माण करना तो पिष्टपेषण मात्र रह जाता है, अतः प्रत्येक कोषकार ने अपने अपने मन्तव्यानसार कोश के क्रम, विभाग एवं स्वरूप का परिवर्तन परिवर्द्धन किया है। 'सुशील नाममाला' में भी ऐसा ही हना है, यहाँ जैन दर्शन के नामों का क्रमानुसार उल्लेख किया हुआ है। कोश के दो प्रकार हैं-ज्ञानकोष एवं शब्दकोष। ज्ञानकोष