________________ तृतीयो मर्त्यविभागः 214 * समिन्नामानि (r) 'समिदिन्धन मेधे-म-तर्पण-धांसि सन्ति षट् / के भस्मनामानि * भसितं' भस्म भूति' श्च, रक्षा क्षार -इच कथ्यते // 1380 // पात्रं' स्त्र वादिकरे प्रोक्त, स्रक्' स वर चापि मन्यते / अधरा सोपभृत्' स्याद् वै, जुहू हि पुनरुत्तरा // 1381 // ध्र वा' स्यात् सर्वसंज्ञार्थ, यस्यां घृतं निधीयते / हन्येत योऽभिमन्यात्र, स स्यात् पशुरुपाकृतः // 1382 // शमनं' शसनं चैव, मखे वधो हि प्रोक्षणम् / पुनः परम्पराक' वै, विजानन्ति मनीषिणः // 1383 // अभिचारो' हि हिंसार्थ, कर्म यत् क्रियते च तत् / स्याद् यज्ञयोग्यकार्य वै, यज्ञार्ह' चापि यज्ञियम् // 1384 // हवि' स्तथैव सान्नाय्यं२, बलिदानं हि कथ्यते। . क्षीरशरः पयस्या२ च, शृतोष्णक्षोरमं दधि // 1385 // प्रामिक्षा ऽपि पुनः प्रोक्त, तन्मस्तुनि तु वाजिनम्'। . हव्यं सुरेभ्यो दातव्य;-मग्निद्वारा हि कथ्यते // 1386 // विप्रद्वारा प्रदत्तं च पितृभ्यः कव्य'-मोदनम् / घृते हि दधिसंयुक्त, पृषदाज्यं' पृषातक:२ // 1387 //