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________________ त] सुशीलनाममालायां ------....-- व्याख्याकारों को, साहित्यकारों को, कवियों को, लेखकों को. वाचकों को और वाङ्मय के किसी भी प्रदेश में विचरने वालों को खजानाभंडार रूप विपुल शब्दकोष की अति आवश्यकता होती है। किसी भी भाषा के अभ्यास के लिये जिस प्रकार व्याकरण के अभ्यास की मावश्यकता है, उसी तरह भाषा के तलस्पर्शी अभ्यास के लिए उस भाषा के कोष को भी उतनी ही आवश्यकता रहती है। शब्दकोषों की रचना अनेक प्राचीन व अर्वाचीन भाषाओं के लिए तत् तद् भाषा के विद्वानों ने शब्दकोषों की रचना करके अपने-अपने कोषग्रन्थ को मुख्य स्थान दिया है। अपनी प्रति प्राचीन संस्कृत भाषा व प्राकृत भाषा विस्तृत और शब्दबाहुल्य वाली है। व्युत्पत्ति सम्बन्ध से, सामासिक सम्बन्ध से, प्रायोगिक सम्बन्ध से, माथिक-तात्विक सम्बन्ध से, सौत्रिक सम्बन्ध से काठिन्य सम्बन्ध से और अनेक विध सम्बन्ध से संस्कृत भाषा या प्राकृत भाषा समलङ्कृत है। प्रतः संस्कृत भाषा में या प्राकृत भाषा के पठन-पाठन में वह प्रन्थ पाठ्य पुस्तकों में मुख्यतया समादरणीय है। संस्कृत साहित्य के या प्राकृत साहित्य के समुपासक भारतवर्ष के प्राचीन या अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने एकार्थ, अनेकार्थ अनेक संस्कृत शब्दकोषों की रचना की है। नामलिङ्गानुशासनकोषकार प्राचार्य श्री अमरसिंह के समकाल में तथा पूर्वकाल में 'विश्व' 'साश्वत' 'मेदिनी' 'रभस' इत्यादि संस्कृत में ऐसे अनेक कोष प्रवर्तक हो गये हैं, जिनका नामस्मरण भी दुर्लभ है। (1) जैन कवि श्री धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाममाला', 'अनेकार्थ माममाला' और 'अनेकार्थ निघंटु' यह नाम के तीन कोष-ग्रन्थों का सर्जन किया है। -
SR No.004481
Book TitleSushil Nammala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1988
Total Pages878
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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