________________ द्वितीयो देवविभागः 55 सञ्चारिणः प्रभेदाश्च, रसानां तु रतिः' पुनः / राग श्चाप्यनुराग' श्चा- ऽनुरति हसनं' तु वै // 433 // हसो हास इच हास्य ञ्च, हासिका' घर्घर स्तथा। तत्रादृष्टरदे वक्रो-ष्ठिका' स्मितं च कथ्यते // 434 // हसितं' कश्यते प्रायः किञ्चिदृष्टरदाङकुरे / तथा विहसितं' किञ्चि-च्छ्र ते वै कथ्यते बुधैः // 435 // अनुस्यूतेऽतिहासः' स्यादहहासो' महीयसि / अकारणात् कृते हासेह्यपहास: स कथ्यते // 436 // प्रथाऽऽच्छुरितकं' हास्यं सोत्प्रासे मन्यते खलु। कथ्यते हसनं' चापि कोविदः स्फुरदोष्ठके // 437 // अथ स्याद् शोचनं' शोकः२, शुक् खेदश्च रुषा' तथा। रुट' रोषो प्रतिघः कोपः५, - कुत् क्रोधश्च तथा ऋधा // 438 // मन्यु श्चाथा ऽभियोग' श्चोत्साहः२ प्रौढिः3 प्रगल्भता। उद्योग उद्यम श्चोर्जः, तथापि कियदेतिका // 436 // पुन श्चाऽध्यवसायो ऽथ, वीर्य' सोऽतिशयान्वितः / प्रातङ्क' स्तु भयं भीतिः, - भिया भी: साध्वसं दरः // 440 // प्राशङ्का चापि तच्चाऽहिभयं' ज्ञेयं स्वपक्षजम् / भूपतीना मथाऽदृष्टं', जलाग्निप्रमुखात् तथा // 441 //