________________ 78 . आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभ / संकाए सम्मत्तं, पठवज्जा अत्थगहणेण // 814 // सत्थं हिअयपविठं, मारइ जणे पसिद्धमिणं / तं पि गुरुणा पउत्तं, जीवावइ पिच्छ अच्छरि // 815 // जणणी जम्मुप्पत्ती, पच्छिमनिद्दा सुभासिआ गुटूठी / मणइट्ठ माणुस्सं, पंच वि दुक्खेहिं मुच्चति / / 816 // जं अवसरे न हुअं, दाणं विणओ सुभासि वयणं / पच्छा गयकालेणं, अवसररहिण. किं तेण // 817 // उवभुंजिऊं न याणई, रिद्धिं पत्तो वि पुण्णपरिहीणो / विमले वि जले तिसिओ, जीहाए मंडलो लिहइ // 818 // कत्थ वि दलं न गंधो, कत्थ वि गंधो न होइ मयरंदो / इक्ककुसुमंमि महुयर ! दो तिण्णि गुणा न दीसंति // 819 // कत्थ वि तवो न तत्तं, कत्थ वि तत्सं न सुद्धचारि / तवतत्तचरणसहिआ, मुणिणो वि अ थोव संसारे / / 820 // जं अज्जि चरितं, देसूणाए अ पुव्वकोडीए / तं पि कसाइमित्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेण // 821 // अइतज्जणा न कायव्वा, पुत्तकलत्तेसु सामिए मिच्चे / दहि पि महिज़्जंतं, छंडइ देहं न संदेहो // 822 // अवलोअइ गथत्थे, अत्थं गहिऊण पावए मुक्खं / परलोए देइ दिट्ठी, मुणिवरसारिच्छया वेसा // 823 // दो पंथेहिं न गम्मइ, दोमुहसुई न सीवए कंथं / ' दुम्नि न हुंति कया पि हु, इंदिअसुक्खां च मुक्ख च / / 824 //