________________ // ॐ ह्रीं अहँ नमः // / / श्रीमदात्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्नसद्गुरुभ्यो नमः / / प्रकाशकीय ऐसा कौन सा विषय है जिस पर जैनाचार्यों ने, जैन मुनियों ने चिंतन न किया हो ? आलेखन न किया हो ? यथार्थ और सटीक विशद विवेचन प्रस्तुत न किया हो ? मात्र आवश्यकता है जैन साहित्य के अन्वेषणात्मक स्वाध्याय की। खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि अमुद्रित होने के कारण अभी भी बहुत सारा जैन साहित्य अछूता और अनदेखा सा हस्त लिखित प्रतियों के रूप में भिन्न-भिन्न ज्ञान-भंडारों में सुरक्षित है / ऐसे साहित्य में छुपे तत्त्वों को जानने समझने के लिए प्राथमिक आवश्यकता है कि अमुद्रित जैन साहित्य का सुंदर ढंग से मुद्रण करवाया जाए / हमें प्रसन्नता है कि इस दिशा में यत् किंचित् कार्य करने के लिए स्वाध्याय, साधना, सेवा और सहकार की भावनाओं को केन्द्र में रखकर निर्मित सर्वतोभद्र तीर्थम्, ओस्तरा (राजस्थान) के एक विभाग रूप में निर्मित 'जैन विद्या शोध संस्थान' के रूप में जैन विद्याओं के संशोधन, संपादन, प्रकाशन एवं प्रचार के लिए कुछ कार्य किया जा सकेगा। आज हम प्रसन्नता अभिव्यक्त करते हैं कि हम इस पुस्तक के मुद्रण के माध्यम से जैन साहित्य के क्षेत्र में एक अपूर्व कार्य करने जा रहे है क्योंकि आगमेतर जैन साहित्य की सूचि में सूर्य के संदर्भ में यह कृति प्रथम है / हमें यह सौभाग्य प्राप्त करवाया है आचार्य श्रीमद् विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वर जी महाराज ने / इस ग्रंथ का संपादन एवं संशोधन पूज्य आचार्य श्री जी ने ही किया है; एवं प्रकाशन के लिए संस्थान के आग्रह को स्वयं की स्वीकृति 36