________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसहत्रयम् शरण्यः // 1003 // "शरण्यार्तिहरः" 1004 इति / शरणागतानामति-पीडां हरतीति तथा // 1004 // "श्रुतिमान्" 1005 इति / श्रुतयः-वेदा विद्यन्ते यस्य स तथा // 1005 / / "शतबिन्दुः" 1006 इति / शतं बिन्दवः-प्रभावा यस्य स तथा // 1006 / / "शतमुखः" 1007 इति / एकस्य वस्तुनः शतं मुखानि-उपाया उत्पादनप्रकारा यस्य स तथा / 'मुखमुपाये प्रारम्भे श्रेष्ठे नि:सरणाऽऽस्ययोः // ' इत्यनेकार्थः // 1007 // "तापी" 1008 इति / ताप:-प्रभाव: शत्रुदमनकारी, सोऽस्यास्तीति तथा // 1008 // “तापनः" 1009 इति / तापयति शत्रूनिति स तथा // 1009 // "तारापति:" 1010 इति / ताराणां-नक्षत्राणां पति:-स्वामी // 1010 // "ताय॒वाहनः" 1011 ताय-पद्मं वाहयति-प्रकाशेन युनक्तीति तथा / 'तार्यो ना गरुड़े युद्धे, कमले स्यानपुंसकम् // ' इति धरणिः / तापेणअरुणेन ऊह्यते इति वा / 'तायः खगेश्वरे सूरसूते स्यन्दन-वाजिनोः॥' इति मेदिनिः॥१०१२॥ "तपनः" 1012 इति / तपतीति तपन:, सर्वदा प्रकाशस्वरूप इत्यर्थः // 1012 // "तपतांवरः" 1013 इति / तपतां-ज्योतिष्मतां वरः-श्रेष्ठ इत्यर्थः // 1013 / / "त्वरमाणः" 1014 इति / त्वरयते इति त्वरमाणः // 1014 / / "त्वष्टा' 1015 इति / त्वक्ष्णोतीति त्वष्टा, तत्तत्कर्मोपदेशकत्वात् / / 1015 // "त्विषामीश:" 1016 इति / त्विषां-प्रभाणामीश:-स्वामी // 1016 / / "तेज:" 1017 इति / तेजयतीति तेजः, सर्वदा तद्रूपत्वात् // 1017 // . 144