________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् “परप्राण:".४७९ इति / परा:-उत्कृष्टाः प्राणा यस्य स तथा, त्रिजगद्व्यापकत्वात् / परेषां प्राण इव प्राण: सर्वप्रियत्वात् // 479 // "परपुरञ्जयः" 480 इति / परेषां-शत्रूणां पुरं-नगरं जयतीति स तथा // 480 // "प्रजाद्वारः" 481 इति / प्रजाया:-सन्ततेरं-मूलोपायः / / 481|| “प्रजापति:" 482 इति / प्रकर्षेण जायन्ते इति प्रजाः, चतुर्विधानि भूतानि / तेषां पति:-स्वामी, तत्कर्तृत्वात् / / 482 // "प्रजनः" 483 इति / जननं-जन:, प्रकृष्टो जनो यस्मादिति सः, प्रकृष्टजन्मसम्पादकत्वात् / / 483 / / . "पर्जन्यः" 484 इति / पर्जन्य:-मेघः, तद्धेतुत्वात्; आध्यात्मिकादितापत्रयोपशामकत्वाद् वा // 484 // "प्रियः" 485 इति / सर्वेषां प्रेमास्पदीभूत इत्यर्थः // 485 // "प्रियदर्शन:" 486 इति / प्रियं दर्शनं-शास्त्रं यस्य स तथा / प्रियं दर्शनंरूपमिति वा / 'दर्शनं शास्त्र-रूपाक्षी // ' इति विश्वः // 486 / / "प्रियकारी" 487 इति / भक्तानां प्रियं कर्तुं शीलमस्येति स तथा / अरंचक्रम्, तदस्यास्तीति अरी, विष्णुः / प्रिय एव प्रियकः, एवंविध: अरीविष्णुर्यस्येति वा // 487 // . . "प्रियकृद्" 488 इति / प्रियं करोतीति प्रियकृत्, सर्वेषां हितकर्तृत्वात् / प्रियं-दैत्यं कृन्ततीति वा / 'प्रियो हितेऽन्यवत् पुंसि दैत्यनामौषधेषु च // इति मेदिनिः // 488 // "प्रियंवदः' 489 इति / प्रियं-हितं वदतीति प्रियंवदः // 489 // "प्रियङ्करः" 490 इति / प्रियं-मनोज्ञं करोतीति सः, सर्वेषां प्रियकारित्वात् / प्रियाः-मनोहारिण: करा यस्येति वा // 490 // 96