________________ श्रुत रत्नरत्नाकरे संपागडपडिसेवी, काएसु वएसु जो न उज्जमई। . . पवयणपाडणपरमो, सम्मत्तं कोमलं तस्स // 42 // चरणकरणपरिहीणो, जइवि तवं चरइ सुटु अइगुरु। सो तिल्लं व किणंतो कंसियबुद्दो मुणेयव्यो // 428 // छज्जीवनिकायमहव्वयाण परिपालणाइ जइधम्मो / जई पुण ताइँ न रक्खइ, भणाहि को नाम सो धम्मो ? // 429 // छज्जीवनिकायदयाविवजिओ नेव दिक्खिओ न गिही / जइधम्माओ चुक्को, चुक्कइ गिहिदाणधम्माओ // 430 // सव्वाओगे जह कोइ, अमच्चो नरवइरस घित्तूणं / आणाहरणे पावइ, वहबंधण दव्वहरणं च // 431 // तह छक्कायमहव्वयसव्वनिवित्तीउ गिण्हिंऊण जई। एगमवि विराहतो, अमञ्चरणो हणइ बोहिं // 432 // तो हयबोही य पच्छा, कयावराहाणुसरिसमियममियं / पुणवि भवोअहिपडिओ, भमइ जरामरणदुग्गम्मि // 433 // जइयाऽगेणं चत्तं, अप्पणयं नाणदसणचरित्तं / तइया तरस परेसुं, अगुकंपा नत्थि जीवेसु // 434 // छक्कायरिऊण अस्संजयाण लिंगावसेसमित्ताणं / बहुअरसंजमपवहो, खारो मइलेइ सुठुअरं // 435 // किं लिंगमिड्डरीधारणेण कन्जम्मि अट्ठिए ठाणे / राया न होइ सयमेव, धारयं चामराडोवे // 436 // जो सुत्तत्थविणिच्छियकयागमो मूलउत्तरगुणोहं / उव्वहइ सयाऽखलिओ सो लिक्खइ साहुलिक्खम्मि // 437 //