________________ श्रुत रत्नरत्नाकरे 78 जो निश्चकाल तवसंजमुज्जओ नवि करेइ सज्झायं / . अलसं सुहसीलजणं, नवि तं ठावेइ साहुपए // 34 // विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे / विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ? // 341 // विणओ आवहइ सिरिं, लहइ विणीओ जसं च कित्तिं च / न कयाइ दुव्विणीओ, सकजसिद्धिं समाणेइ // 342 // जह जह खमइ सरीरं, धुवजोगा-जह जहा न हायति / कम्मक्खओ अ विउलो, विवित्तया इंदियदमो अ॥३४३॥ जइ ता असक्कणिजं, न तरसि काऊण तो इमं कीस / अप्पायत्तं न कुणसि, संजमजयगं जईजोगं ? // 344 / / जायम्मि देहसंदेहयम्मि जयणाइ किंचि सेविजा / अह पुण सजो अ निरुज्जमो अ तो संजमो कत्तो ? // 345 // .. मा कुणउ जइ तिगिच्छं, अहियासेऊण जइ तरइ सम्मं / अहियासितस्स पुणो, जइ से जोगा न हायति // 346 / / निच्चं पवयणसोहाकराण चरणुज्जुआण साहूणं / संविग्गविहारीणं, सव्वपयत्तेण कायव्वं // 34 // हीणस्सऽवि सुद्धपरूवगस्स नाणाहियस्स कायव्वं / जणचित्तग्गहणत्थं, करिति लिंगावसेसेऽवि // 348 / / दगपाणं पुप्फफलं, अगेसणिजं गिहत्थकिञ्चाई / अजया पडिसेवंती, जइवेसविडंबगा नवरं // 349 // ओसन्नया अबोही, पवयणउम्भावणा य बोहि फलं / . ओसन्नोऽवि वरंपिहु पवयणउन्भावणापरमो // 35 //