________________ श्रुत रत्नरत्नाकरे नरएसु सुरवरेसु य, जो बंधइ सागरोवमं इक्कं / पलिओवमाण बंधइ, कोडिसहस्साणि दिवसेण // 274 / / पलिओवमसंखिज, भागं जो बंधई सुरगणेसु / दिवसे दिवसे बंधइ, स वासकोडी असंखिज्जा // 275 // एस कमो नरएसुऽवि, बुहेण नाऊण नाम एयमि / धम्मम्मि कह पमाओ, निमेसमित्तपि कायव्यो ! // 276 // दिव्वालंकारविभूसणाई रयणुजलाणि य घराई / रूवं भोगसमुदओ; सुरलोगसमो कओ इहयं ? // 277 // देवाण देवलोए जं सुक्खं तं नरो सुभणिओऽवि / न भणइ वाससएणऽवि जस्सऽवि जीहासयं हुज्जा // 278 // नरएसु जाइं अइकक्खडाइँ दुक्खाँइ परमतिक्खाई। को वण्णेही ताई ?, जीवंतो वासकोडीऽवि // 279 // कक्खडदाह सामलिअसिवणवेयरणिपहरणसएहिं / जा जायणाउ पावंति, नारया तं अहम्मफलं // 28 // तिरिया कसंकुसारानिवायवहबंधमारणसयाई / नऽवि इहयं पाता, परत्थ जइ नियमिया हुंता // 28 // आजीव संकिलेसो, सुक्खं तुच्छं उवद्दवा बहुया / नीयजणसिट्ठणावि य, अणिट्ठवासो अ माणुस्से // 282 // चारगनिरोहवहबंधरोगधणहरणमरणवसणाई / मणसंतावो अजसो, विग्गोवणया य माणुस्से // 283 // चिंतासंतावेहि य, दरिदरूआहिं दुप्पउत्ताहिं। .. लघृणऽवि माणुस्सं, मरंति केई सुनिविण्णा // 284 //