________________ पृष्टः कुलाभिधानादि, मया प्रोक्तं यथास्थितम् / / योग्यं ज्ञात्वा कमलिनी, स्वां पुत्री परिणायितः // 40 // ततस्तेनोदितं वत्स, स्वीयं गृहमिदं तव / अत्र तिष्ठ निरुद्विग्नो विलसन् सह वत्सया . // 41 // मयोक्तं स्वार्जितं वित्तं, विना भोगो विडम्बना / प्रस्थापय सुसार्थेन, रत्नद्वीपं व्रजामि तत् // 42 // श्रेष्ठी प्राह कृतं वत्स!, समुद्रोल्लङ्घनेन ते। .. मदीयेन धनेन त्वमत्रैव धनमर्जय , // 43 // मयोक्तं यदि निर्बन्धस्तवायं तत् पृथग्गृहे / स्थितः स्वीयेन वित्तेन, पणेऽहं पृथगापणे // 44 // श्रेष्ठिनाऽपि तथेत्युक्ते, लग्नस्तत्र धनार्जने / तेन सागरमित्रेण, प्रेर्यमाणः क्षणे क्षणे, // 45 // गता दयालुता नष्टा, धर्मधीः क्षीणमार्जवम् / कर्मादानानि सर्वाणि, कृतानि बहुशो मया // 46 // तृड्बुभुक्षे मया सोढे, धनलोभान्धचेतसा / . रात्रावपि न सुप्तोऽहं, नापि भोगा निषेविताः क्लेशेन तावता सार्द्धं, सहस्रं तदभूत् ततः / सहस्रद्वयवाञ्छाऽभूत्, तत्प्राप्तौ चायुतस्पृहा // 48 // प्राप्तं तदप्युपायेन, ततो लक्षे गतं मनः / नानोपायप्रसक्तेन, मया तदपि मीलितम् / // 49 // ततोऽपि प्रयुतेच्छाऽभूत्, सागराज्ञास्थितस्य मे / कालेन भूयसा साऽपि, पूरिता क्लेशकोटिभिः // 50 // कोटिप्राप्तौ ततो वाञ्छा, जाता मे साऽपि पूरिता। .. बहूपायैर्महारम्भैर्नृपसेवादिवृत्तिभिः . // 51 // // 47 //