________________ // 708 // // 709 // // 710 // // 711 // // 712 // // 713 // क्रूराशयैर्यमसमैर्वेष्टितो राजपूरुषैः / कोलाहलैः कषायाख्यडिम्भानां प्रविसृत्वरैः श्रूयमाणेन विरसडिण्डिमध्वनिना तथा / शब्दादिभोगसंज्ञेन, निन्दया च विवेकिनाम् बाह्यलोकविलासेन, खलहासेन भूयसा / निःसारितो वध्यभूमेः, संमुखं शून्यमानसः महाविदेहरूपेऽस्मिन्, हट्टमार्गे सुविस्तृते / आनीतो देशमेनं स्वदेशदर्शनकैतवात् श्रुतो युष्माभिरुच्चैर्मबलकोलाहलस्ततः / आगता मे महाभद्रा, संमुखं विपुलाशया इतश्चाहं परित्यज्य, स्वसैन्यं पृष्ठतोऽखिलम् / वृतो नृपैः कतिपयैरुद्यानमिदमागतः . रक्ताशोकतले यावत्, स्थितस्योत्तीर्य वारणात् / राजपुत्रा विनीता मे, दर्शयन्ति वनश्रियम् . आगच्छन्ती मया तावन्महाभद्रा विलोकिता / तस्यां ममज्ज मे दृष्टिनिवृत्त्य विषयान्तरात् ववर्ष स्नेहपीयूषं, तस्यां मग्ना च दृग् मम / मयि स्नेहं दधौ पूर्वाभ्यासादेषाऽपि निःस्पृहा ममाभ्यर्णमथ प्राप्ता, स्मरन्ती भगवद्वचः / / अयं नरकगामीति, करुणापूर्णमानसा ततः कदम्बमुनित्वेऽस्या, गुणधारणजन्मनि / चित्तार्पणान्मया भूयो, विनयाद्यनुशीलनात् कृतश्चारुविमर्शोऽयं, केयं भगवती ननु / दृष्टमात्राऽपि याऽऽह्लादं, मानसे वितनोति मे // 714 // // 715 // // 716 // // 717 // // 718 // // 719 // 245