________________ // 240 // // 241 // // 242 // // 243 // // 244 // // 245 // निषण्णो भूतले शुद्ध, प्रीतोऽहं सपरिच्छदः / देशनाऽऽरम्भि गुरुणा, ततः कर्मविषापहा भवाम्भोधौ महोद्दामदुःखकल्लोलभीषणे / भो भव्याः ! शरणं धर्मं, विनाऽन्यन्नास्ति देहिनाम् संयोगा विप्रयोगान्ता, विपदन्ताश्च सम्पदः / जरान्तं चारु तारुण्यं, किं पर्यन्तसुखे भवे भवे यन्मधुलिप्तासिधारास्वादसमं सुखम् / . तत्रास्था धीमतः कस्य, युज्यते दुःखमिश्रिते सर्वद्वन्द्वविमुक्तानां, सिद्धानामेव तात्त्विकम् / संसिद्धसर्वकार्याणां, निर्द्वन्द्वं वर्तते सुखम् जन्माभावे जरामृत्योरभावो हेत्वभावतः / तदभावे च सिद्धानां, सर्वदुःखक्षयात् सुखम् वृत्तिभ्यां देहमनसोर्दु:खे शारीरमानसे / भवतस्तदभावाच्च, सिद्धौ सिद्धं महासुखम् त्यक्तबाह्यान्तरग्रन्थैरथवा लभ्यते सुखम् / तात्त्विकं मुनिभिः शान्तैर्विरक्तेर्भवचारकात् सुखिनो विषयातृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो / भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः सर्वे दुःखद्विषो जीवाः, सर्वे च सुखकाङ्गिणः / न विना साधुतां हन्त, सुखदुःखक्षयौ पुनः निश्चित्य तदिदं तत्त्वं, संसारं प्रविहाय भोः ! / विधीयतां महासत्त्वा ! भवद्भिः साधु साधुता इदं मे भगवद्वाक्यं, रुचितं लघुकर्मणः। .. कुर्वे भगवदादिष्टमिति चित्ते च चिन्तितम् // 246 // // 247 // // 248 // // 249 // // 250 // // 251 // 5. 206