________________ // 168 // // 169 // // 170 // // 171 // // 172 // // 173 // सर्वेऽपि खेचराः प्रोचुस्तातस्याग्रे सुतस्तव। धन्योऽयं वरवीर्योऽयं, पूताऽनेन वसुन्धरा अयं जीवितदोऽस्माकं, देवोऽयं गुरुरेष नः। इत्यम्बरचरस्तुत्या, मुदितौ पितरौ मम अथ सर्वे प्रमोदेन, सप्रमोदपुरेऽविशन् / तातेनाह्लादितोऽत्यन्तं, सबन्धुः कनकोदरः सर्वे विद्याधरास्तुष्टाः, प्रहृष्टा नगरी जनैः / अनिर्वाच्यसुखोत्कर्ष, तद्दिनं मम लङ्क्तिम् . प्रियाया रत्नराशेश्च, लाभात् प्रत्यर्थिभङ्गतः। ताताम्बाचित्ततोषाच्च, मुदितोऽहं भृशं हदि समं मदनमञ्जर्या, स्थितोऽहं वाससद्मनि। तत्रानुभूतवान् रात्रौ, रतोत्सवसुखं महत् , अत्यन्ताबाधितस्वान्तः, केवलं लौल्यहानितः / लब्धनिद्रासुखः प्राप्तः, प्रबुद्धः प्रियया सह कृतं प्राभातिकं कृत्यं, ताताम्बानमनादिकम्। . सन्निधानमथायातो, मित्रं मम कुलन्धरः . मां प्रत्यभिहितं तेन, निराकुलहृदा मया। त्रयः पुमांसो द्वे नार्यावद्य स्वप्ने निरीक्षिताः तैरुक्तं विहितोऽस्माभिः, सुखौघो गुणधारणे / शुभमस्याखिलं कुर्मो, वयमेव कुलन्धर! तिरोबभूवुरित्युक्त्वा, मानुषाणि ममाग्रतः / तानि कानीति नो विद्मः, कार्यं कुर्वन्ति यानि ते मयोक्तं जनकादीनां, स्वप्न एष निवेद्यताम्। .. व्यक्तो यथा स्याद् भावार्थस्तेनोक्तस्तातपर्षदि // 174 // // 175 // // 176 // // 177 // // 178 // . // 179 // 200